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बद वेगतः ॥२१॥यास्त्वं यदि यो सीसहकीमाशमन्दिर । व्याय:धनुर्धातस्स्था पापाणेश्च मुष्टिमिः।। २१४ ॥ निश्यलो । मेरुबद्धीः सिंहवादारिराशिवत् । गम्मौर: सत्वमाश्रित्य न सबाल स योगतः ।। २१५॥ तदासौ दुर्मतियाधस्तताओपनराशिभिः पूर्ववैरोदयाबाद सस्य क्रोधोऽ भृशायत ।। २१६ ॥ आकण्ठ माध्यमामोऽपि तेन पापीयसा मुनिः । नापत तले भव्यो ध्यानमित्यवर्क पतात् ॥ २७॥ यदा मिल्लो मुनेः कण्ठे बापमारोप्य धेगसः । आचकर्ष बलाहोम्यों न चचाल सदापि सः ॥ २१८॥ दोर्दण्डीकृत्व चापं स्वं किरातो मुनिमस्तके । जघान घन घातैश्च तविघ्नो दुईंचो पिदो ॥२६| बादशेति मुनिद घ्यायनुप्रेक्षाः स्वमानसे । तदुध्यान । भोत होनेवाले थे वे मेरुपर्वतके समान निश्चल सिंहके समान धीरवीर समुद्र के समान गंभीर होगये। चित्तमें उत्तम कोटिकी शांति धारण कर वे रश्चमात्र भी ध्यानसे न चिगे। मुनिराजका इसप्रकार | A का मौन देख उस दुष्टका क्रोध एकदम उबल उठा एवं पूर्वबैरके सम्बन्धसे वह उन्हें पत्थरोंसे
मारने लगा ॥ २१४-२१५ ॥ कण्ठपर्यन्त उस पापीने मुनिराजको पत्थरोंकी मार मारी परन्तु वे ध्यानरूपी मजबूत भीतिके सहारे खड़े थे इसलिये वे जमीनपर न गिरपाये ॥ २१६ ।। मुनिके गलेमें दुष्टने धनुष डाल दिया और दोनों भुजाओंसे उन्हें खींचने लगा तथापि वे मुनिराज रञ्चमात्र भी चल विचल न हुए ॥ २१७ ॥ अन्तमें दुष्टने क्या किया दोनों भुजाओंसे धनुषको पकड़। लिया एवं तीक्ष्ण बाणोंसे मुनिराजका मस्तक छेदने लगा। यह विघ्न वास्तवमें विद्वानोंके वचनके । अगोचर था। मुनिराज बज्रायुधने अपने ऊपर तीव्र उपसर्ग समझकर बारह भावनाओंका चिन्त-17
वन करना प्रारम्भ कर दिया। वे रञ्चमाञभी उस विघ्नसे विचलित न हुये ठीक ही है ध्यान और । IT तप वही प्रशस्त माना गया है जो विध्नके उपस्थित हो जानेपर मनुष्यको विचलित न होने दे |
|॥२१८-२१६ ॥ वे मुनिराज चित्तके अन्दर इसप्रकार भावना भाने लगे___ संसारमें जितने भी धन धान्य मादि पदार्थ दीख पड़ते हैं सव भनित्य हैं तथा पिता पुत्र -