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नागनाथ स एवाइमादित्याभोऽस्मि सांप्रतं । ववर्ष दुःखिनं श्वभ्रं बधे ष्ट्वा व्यचिंतयं ॥ १२ ॥ अहं स्वर्गेऽमरो जातो लोलावान् सुखभाजनं । मत्सोदरी महादुः भुनकि सागरे ॥ १३ ॥ निष्कासयाम्यहं सूर्ण' 'वांधव प्राणतोऽधिकं । असुरान् बज्रघातेन प्रह स्वाति चिंत्य च ॥ १४ ॥ अगमं मोहतस्तत्राबोधयं बांधव निजं । ह्रासयित्वा सुरान्पापान् प्रकृत्या दुःखदायिनः ॥ १५ ॥ निष्का सितु मयोपाया अकारिषत हे भोट् । जो तस्य महादुः तैरुपायैर्यदा तदा ॥ १६ ॥ निर्गतेन ततः पृष्टः श्रीमंधर जिनाधिपः । स्वद्भ वालिकां नूनं प्रोक' मेऽखिलं श्रुतं ॥ १७ ॥ तत् श्रोतव्यं त्वया नागेट् त्रयीगि भ्रांतिहानये । जंबूद्वोपेऽत्र विख्याते वर्षे वैरायताभिधे
मैं तो स्वर्ग कर अनेक क्रीड़ाओं का स्थान देव होगया हूं और अनेक प्रकार के सुख भोग रहा हूँ परन्तु मेरा भाई विभीषण नरकमें पड़ा २ महा दुःख भोग रहा है मुझे चाहिये कि मैं समस्त असुरोंको बज्रसे छिन्न भिन्न कर शीघ्र ही अपने प्राण प्यारे भाईको नरकसे निकाल ले आऊ' वश में ऐसा विचार कर मोहसे व्याकुल हो शीघ्र हो दूसरे नरक गया। अपने भाईको पूर्व | भवका वृत्तांत सुना संबोधा एवं जो असुर कुमार जातिके देव स्वभावसे ही नारकियोंको पीड़ा पहुचानेवाले थे उन्हें शक्तिभर धमकाया डराया ॥ १२-१६ ॥ प्रिय नागेन्द्र ! अपने भाईका नरकसे निकालने के लिये मैंने बहुत उपाय किये परन्तु उनसे उसे उल्टा घोर दुःख होने लगा। जब मैंने देखा कि इसके निकालने के लिये जो उपाय किये जाते हैं उनसे इसे दुःख ही होता है, तो मैंने उसके निकालने का विचार स्थगित कर दिया। सीधा में भगवान श्री मन्धरके पास गया । मैंने उनसे सब बात पूछी। उन्होंने तुम्हारे पूर्व भवों का वर्णन किया जिसे मैंने रुचिपूर्वक सुना । प्रिय नागेंद्र ! भगवान श्रीमन्धरके द्वारा सुना गया तुम्हारे पूर्व भवका वृत्तांत मैं तुम्हारे सामने वर्णन करता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो।
इसी जम्बूद्वीप ऐरावत क्षेत्रमें एक अयोध्या नामकी पुरी है जो कि खाई और किलोसे
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