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संजयंतमनाराध्य विद्या मायातु सिद्धितां ॥ ४३ ॥ मनुभ्रातृसिद्धिशं साक्षादनाराध्य विधिं जनाः । मायांतु सत्पदं कापि ततः पर्यचतु ईशी ||३४|| दयां चेने शाप तहाँ ते शपिनः खगाः । अपरान्मारयन्त्येव मुनीनान् कुटिताशयाः ॥४५॥ एषोऽत्रि पर्वतो विद्याधराग लज्जितोऽजनि । अतस्त' नामतः रोळं होमंतं कृतवांस्त ॥ ४५ ॥ धनुः धातोः प्रतिनिधिं व्यधात् । प्रतिष्ठित्वाऽथ तं नस्वा महोत्सव परः शतैः ॥ ४७ ॥ मुक्टवा तं खेवर पापं दं वमभ्यर्च्य नागराट् । कलुषीभावमुत्सृज्य पफाणाशु निर्ज पदं ॥ ४८ ॥ भाहित्या भोsपि स्वर्ग जगाम मगधेश्वर ! त्याजयंति महाद्वेष साविका हि हितेच्छवः ॥ ४६ ॥ भय जंबूद्र मान्वीते द्वीपे हीमद्विधीकृतं । भारतं भाति षट्खपिड गङ्गासिंधूर्मिभूषणं ॥ ५० ॥ लयांते या साडेका नित्यत्वं दृश्यते यदि । ह्रीमत्पुरस्तानीत्वा द्विसप्ततियुगानि च
र अन्य मुनियों को भी मारेंगे ॥ ३६-४६ ॥ इस विद्याधर पर्वत पर सुनिराज संजयन्तको कष्ट पहुंचाया गया है इसलिये यह भी लज्जाका स्थान है अतः उस पर्वतका उस दिनसे हीमन्त ( लज्जावान ) नाम रख दिया गया |४७ | धरणेंद्र ने अपने भाई संजयंतकी पांचसौ धनुष ऊ ंची प्रतिमा तयार कराई। सैकड़ों महोत्सवोंके साथ प्रतिष्ठाकर वहीं उसे विराजमान कर दिया और भक्तिपूर्वक | उसे नमस्कार किया ॥ ४८ ॥ धरणेंद्रने पापी विद्याधर विद्युद्दष्ट्रको छोड़ दिया । आदित्याभ देवका परिपूर्ण आदर सत्कार किया। उसके हृदयमें जो विद्याघर विद्युद्दष्ट्र के मारने के कलुषित विचार थे सव निकाल दिये और सानन्द अपने स्थान चला गया ॥ ४६॥ इतनी कथा सुनाकर गौतम स्वामीने राजा श्रेणिकसे कहा -- प्रिय राजन् ! जव यादित्याभने देखा कि नागेंद्र वैरका सर्वथा परित्याग कर अपने स्थान चला गया है तब वह भी अपने स्थानको चला गया ठीक ही है जो मनुष्य दूसरों
के हितकी इच्छा रखने वाले और सज्जन प्रकृतिके होते हैं वे अवश्य ही दूसरोंका आपस में गैर मिटा देते हैं ॥ ५० ॥
ड्रीमन्त पर्वतसे जिसके कि दो खंड होरहें हैं ऐसे इसी जंबुद्वीपके अन्दर भरत क्षेत्र हैं जो कि
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