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। ५८ ॥ गन्ध भसप्तिभिः प्रौढ राज्य सामंतसेवितं । त्या जनहतुःक्षा तौ श्रीविमलसन्निधौ ॥ ५७॥ मत्वा स्वस्वामि धीरौ चकाते तो हपश्चिर' । चन्द्रादिरसमासांतं सरिसोरनगादिष॥६० ॥ पर्यकासनसंयुको धीरौ मतले कञ्चित् ।) 5 कायोत्सर्गस्थिती कापि तिष्ठतः स्म हरी इव ॥ ६ ॥ शीतकाले सरित्तोरे भ्रश्य महादेवके । पृधुरोमगतिच्छेदे दग्धामीजबनेऽबने ।
६२॥ तिष्ठतः स्म महाकायौ मेरुसंस्थी शिवाप्तये। चतुःपयेऽनिलबातः केशा धनीकुरा इत्र ॥ ६ ॥ तयोः संजक्षिरे नूनम'जनागसमानयोः । शीतदग्धांगयो स्तिपसा क्षामयोभृशं ॥ ६४ ॥ ( शिभिर्विशेषक) शुष्ययत्र जल शोते नीरसीभूयमोतितः । दूषत्तुल्यं भवेत्तहो मन्दर नामका पुत्र हुआ जो कि बड़ा भारी यशखी था इस तरह वे दोनों कुमार सूर्य और ke चन्द्रमाके समान सानंद रहने लगे॥ ५८ ॥ वस इस प्रकार भगवान विमल नाथके मुखले अपने - पूर्व भवॉका वृत्तांत सुन राजा मेरु और मन्दरको संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य होगया। जो उनका राज्य अणत गज हस्ती और उत्तमोत्तम घोड़ोंसे शोभायमान था और अनेक दुर्घट सामन्त । जिसकी सेवा करते थे उस राज्यको उन्होंने जीर्णतृणके समान तत्काल छोड़ दिया और भगवान विमलनाथके चरणों में तत्काल दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगये ॥ ५६ ॥ ५६-६०॥ भगवान विमलनाथको उन्होंने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया एवं एक मास दोमास तीन माल चार मास पांच मास और छह मास तकका उपबास धारण कर वे नदीके तट और पर्वतों पर घोर तप तपने लगे॥६१॥ वर्षा ऋतुमें धीर वीर वे दोनों मुनिराज पयंक आसन माड़कर और कायोत्सर्ग मुद्रा धारण कर दो सिंहोंके समान वृक्षोंके नीचे रहने लगे। ६२ ॥ जिस शीत कालमें बनके वृक्ष | दग्ध होजाते हैं। रोंगटे ठर्रा निकलते हैं और कमलोंके बनके बन दग्ध हो जाते हैं उस समय विशाल
शरीरके धारक और मेरु पर्वतके समान निश्चल दोनों मुनिराज मोक्ष प्राप्तिकी अभिलाषासे चौपटे EN में निवास करते थे और तीखी पबनके झकोरे सहते थे। वे दोनों मुनि अञ्जन पर्वतके समान