Book Title: Vimalnath Puran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 359
________________ RewarkPYRel हिमानवानां तु फा कथा ॥ ६५ ।। प्रोष्मतांवगटङ्गम्यंशुप्रालिस्पिती मुनों । पायंती सिद्ध सखोज यहोभूनाशुभूगले ॥६६॥ अग्नितसकटाहाभ घनमामा तस्थतः । यहिज्वालाधिक दुःखसमूहोत्पादके व तो ॥ १७ ॥ यावृषि नोरनि िखिताशयां यमोसरी। मेकभीकुद्धवः स्त्रसजीवायां कर्णरोधिभिः॥८॥ पनि दिनोप्लष्टभूमहायां च निर्ययो। कुरितपादाकी सर्पवयन्वितांगको॥ ६६ ॥ तिमित्रातमसां प्रातर योवीधराकतिस्थतुयानसंसको मेयबग्निश्चलौ च तो॥७॥ (सिमिर्विशेषक) सप्तर्धिसमवेतः सन् मेरुस्तुर्याधकोधनः । बभूव मैदरचा मन:पमारविः ॥ ६॥ पश्चातगगणेविमलबाहनः । परीतो भाति ताराभि काले पड़ गये थे। उनका समस्त शरीर कृश होगया था इसलिये उस समय उनके मस्तकके ka केश दाव घासके समान रूखे और विखर गये थे ॥६३-६५ ॥ जिस शीतकालमें तालावोंका जल नीरस होकर सूखकर पत्थरके समान वरफ बन जाता है उस समय मनुष्योंकी तो बात ही | क्या है ! ॥६६॥ ग्रीष्म ऋतुके समय जब कि पृथ्वोतल अग्निके समान दहकता रहता है उस समय वे दोनों मुनिराज सूर्य के सामने खड़े होकर पहाड़ोंपर तप तपते थे और हृदयमे 'सिद्ध' इस वीजा | घर स्वरूप मंत्रका ध्यान करते थे। वे दोनों मुनिराज अग्निसे तपाये गये कड़ाहोंके समान जाज्यल्यमान अग्निकी ज्वालासे भी महा भयङ्कर और अनेक प्रकारके दुःखोंसे व्याप्त प्रोष्म ऋतुको वर्षा ऋतु सरीखी समझते थे॥६७ ॥ जिस वर्षाकालमें चारो ओर महा भयङ्कर मेघोंको गर्जना होती रहती है। कानोंको फोड़ देनेवाले मीडकोंके भयङ्कर शब्दोंसे समस्त जीव त्रस्त रहते हैं। बिजलियोंके गिरनेसे बृदके वृक्ष नष्ट हो जाते है उस वर्षाकालमें वे दोनों मुनिराज निर्भय हो । अपने आत्म स्वरूपका चिन्तबन करते थे। उस समय उनके चरण दाव पासके अंकुरोंसे व्याप्त रहते थे। समस्त शरीर सर्प और लताओंसे वेष्टित रहता था तथापि उन्हें किसो वातका भय न था। तथा वर्षा कालको अधियारो रातोंमें जब कि पृथ्वी पर्वत और वन कुछ भी नहीं दीख पड़ते थे KEEYatraTha AN

Loading...

Page Navigation
1 ... 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394