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तद्याशं ये फरिष्यति मौनप्रामग्रतानियताः । ते लगतेऽदतां गम व्यवहारासंशयं ॥ २५ ॥ तियें चोषि पदं देवं यांति तग धराश्रयात् । मनुष्या न लभतेऽत तपसा कि परं पदै ॥ २६ ॥ भाहितीत्वतो लेखा निषेवतेऽनिशं मुदा । तद्यानाकन्नराणां च पशन न गतिर्म चेत् ॥ २७ ॥ श्रीमत्सुविधितो मून्मेघदेवस्य साधनं । प्रेश्वरखागस्यान तहिनाइनवर्षणं । २८|| तथा भांडाष्टमी जो पर्वमता हि सोत्सवा । सुकालेतरफालस्य दर्शिनी मध्यरात्र ||२६ ॥ अवैकदा मुनिमें रुः प्रतिमायोगमाश्रितः पर ज्योतिः स्मरन् खाते धराधस्तटे भौ ॥ ३० ॥ निवन्धोनिस्पृहः शांतो कृशीभूयमितो मुनिः । याबध्यो पर धाम मध्यराले स मागध !॥ १॥
इसमें कोई सन्देह नहीं ॥ २६ ॥ श्री सम्मेद शिखरके आश्रयसे जब तियंच भी, देव पद प्राप्त कर ME लेते हैं तब उत्तम तपके आचरणसे मनुष्य तो परम पद प्राप्त कर ही लेते हैं, यह बात विल्कुल
निश्चित है। यह सम्मेद शिखर तीर्थ सबसे उत्तम तीर्ध है अनादि निधन है इस लिये देवगण रात्रि दिन इसकी बन्दना करते हैं तथा यह नियम है कि श्रीसम्मेद शिखरकी यात्रा करनेवालोको तिथंच गतिका दुःख नहीं भोगना होता ॥ २८ ॥ भगवान पुष्पदन्तके तीर्थकालमें विद्याधर मेघेश्वर ने मेघदेवका साधन किया था उसी दिनसे वर्षाका प्रारभ माना है वह दिन अष्टमीका था इस लिये उस अष्टमीका नाम भांडाष्टमी पड़ गया जो कि पर्व मानी जाती है और उसमें अनेक प्रकारके उत्सव हुआ करते हैं तथा उस दिन ठीक आधीरातके समय सुभिक्ष होगा वो दुर्भिक्ष होगा | | इस बातकी जांच की जाती है इसलिये संगति वड़ी चीज है ॥ २७–३०॥ ___एक दिनकी बात है कि मुनिराज मेरु, पर्वतके अधो भागमें प्रतिमायोग धारणकर चिदानन्द
चैतन्य स्वरूप आत्माका ध्यान कर रहे थे। उस समय वे समस्त प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित थे और
निस्पृह थे। आधी रातके समय वे परमात्माके स्वरूपका चितवन कर हीरहे थे कि विद्युन्मालो नामका 12 विद्याधर अनेक पर्वतों पर क्रीडा करता हुभा और आकाशमें विचरता हुआ मुनिराजके ऊपरसे
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