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नियत
व्योमयानं निजं स्फोतं किंकिणीरण मुहुर्मुहुः । इति कारुणो रोद्रः पद
समायो विद्युन्माली तो मुनेः। उपर्यकांतया सार्धं क्रीडयन् भुधरेषु च ॥ ३२ ॥ राजितं । स्तंभितं धानुकले विलोक्यांशु कुषं गतः । ३३ ॥ नमोगश्चितयामास रंथि घातैश्यायंस्तत् ॥ ३४ ॥ महिमानी महाविद्यारक्षितो विद्भयप्रदः । केन पापीयसा वो हठात्सामर्थ्यशालिना ॥ ३५ ॥ अवध्यते हंसा व्याधेनाश्यथवा त्वया । मन्नमर्ग तथा केताकारि भग्नगति दिया । ३६ । पश्येय ने वर्ष पापमावश्य मईश्वरा राखघातेंद्र च द्विश्च तं हन्यां दंत दुधिय ॥ ३७ ॥ विश्वरत्वं चिरं स्वति शिंजित विधनुः खगः । जग्राहोड रसामध्य भीषण हरिवत्कुधा ॥ निकता । यह नियम है जहां पर ऋद्धिधारी सुनि विराजते हैं उनके ऊपरसे किसीका विमान नहीं निकलता | विद्याधर विद्युन्मालोका विमान विशाल था छोटो२ घण्टियों से शोभायमान था ज्योंही वह ठीक मुनिराज के ऊपर से श्राया धातुकी कीलोंसे जैसे अटका दिया जाता है वैसे हो अटक गया विमानकी यह दशा देख विद्याधर विद्युन्मालीको बड़ा क्रोध आया एवं वह विमानको पैरोंसे वार बार चलाता हुआ अपने मनमें इस प्रकार विचारने लगा
यह मेरा विमान अनेक महा विद्याओंसे रक्षित है। बैरियोंको भय प्रदान करनेवाला है किस बलवान पापांने मेरे विमानको रोक दिया है । ३१ - ३६ ॥ आश्चर्य है जिस प्रकार हंसको व्याध पकड़ लेता है उसी प्रकार भाई ! तुझ किस शत्रुने मेरा विमान पकड़ कर बांध लिया है ॥ ३७ ॥ मैं भी तु पापो वैराकी खोज करता हूं। मैं तुझ दुष्ट बुद्धिको शस्त्रों के घातोंसे और पत्थरों से अभी प्रास रहित कर दूंगा। बस इस प्रकार दृढ विचार कर शीघ्र हो उसने धनुष हाथमें ले लिया एवं मारे क्रोध सर्प के समान भयङ्कर हो वलवान उस विद्याधरने शीघ्र ही धनुष पर बाण चढ़ा लिया । लक्ष्य बांधकर वह नोचेको फेंकता ही था कि उसकी स्त्रीने उसका हाथ पकड़ लिया एवं वह अपने पति विद्याधरका इस प्रकार समझाने लगी---
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