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NAKYAYPERTERYkNARY
पप ॥२२६ ॥ संसारे दुलमो पोधो दीपो वस्तुमान । मात्मज्योतिर्पतः स्पष्टीभूपमायाति कायिनां ॥ २३७ ॥ कर्मागे पाशुर्वन घेतोजागिरीयसि । तमोऽरिस्तमति धातध्यातव्यो घोष एव से || २३८ ॥जगन्नाथन याण्यासो धर्मो माषत्रतावितः । दुःप्रायः
प्राणिनां मत्त्वा चिंतनीयः प्रयत्नतः ॥ २३६ ॥ चिंतयनिति सयानं बनायुधमुनीश्वरः । प्रत्यूह सत्कृतं जित्वा मुमोचासून एक जितेन्द्रियः ॥ २४० ॥ सर्वार्थ सिदिमाराशु धर्मध्यानपरोमुनिः । महमिद्रो महासौसर्थ भुजन् तस्थौ स निर्मलः ॥ २४ ॥ शुक्ल Lal लेश्योऽथ शुक्लांगइस्तमात्रा महोधिः। नपान यत्समुद्रायुर्मिकपाधिर्म मातिगः ॥२४२ ।। ईशा तत्र देवस्य विद्यते शक्तिमत्तमा ।
अन्धकारके नाशके लिये सूर्य है इसलिये सम्यग्ज्ञानका हृदयसे ध्यान करना आवश्यक है। इस प्रकार संसारमें सम्यग्ज्ञानको प्राप्ति बड़ी दुलभ है ॥ २३६–२३७ ॥ भगवान जिनेंद्रने जो भावनत आदि स्वरूप धर्म बतलाया हैं वह बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है इसलिये धर्मात्माओंको चाहिये कि वे प्रयत्न पूर्वक धर्मका चिंतन करते रहें ॥ २३८॥ इस प्रकार धर्मके स्वरूपका चिन्तवन करना धर्मानुप्रेक्षा है। इस प्रकार बारह भावनाओं के चितवन करनेवाले मुनिराज वजायुधने दुष्ट अति। दारुण भोल द्वारा किया गया समस्त उपसर्ग बड़ी शांतिसे सह लिया। जितेन्द्रिय मुनिराज धर्म ध्यानमें लीन होगये । प्राणोंका परित्याग कर सर्वार्थ सिद्धि विमानमें जाकर अहमिन्द्र
होगये। एवं वहांका सानन्द सुख भोगने लगे ॥ २३६-२४०॥ मुनिराज वजायुधके जीवके शुक्ल 12 लेश्या थी। एक हाथका सुन्दर शरीर था। वह तेजका खजाना था। तेतीस सागरकी आयु थी। किसी से
प्रकारकी उनके साथ विशेष उपाधि न थी एवं भ्रांत ज्ञानसे वे रहित थे ॥ २४१॥ शास्त्र में सर्वार्थ 51 सिद्धिके देवोंके अन्दर इतनी अद्भुत शक्ति बतलाई है कि यदि वह चाहे तो निमेषका जितना प्रमाण बतलाया है उसके अठारहवे भागमें ही अर्थात् देखते देखते वह लोकाकाशको उलटा कर | सकता है॥ २४२ ॥ मुनिराज वजायुधको कष्ट देनेवाला वह अति दारूप भील पापके तीव्र उदयसे
पापपरपयरपर