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१२१ ॥ हरिबाइजनामाभूदिलाप: पालिसप्रजः । शशिनमा प्रिया तस्य तयोः पुत्रः सुकोशनः ॥ १२२॥ गुरोधिनयतः स्वल्पकालेनापी पटन्छ त । समग्रमाईतं धीमान् पूर्वपुण्यात्मकोशलः ॥ १२३ । समायौवनो जसे सत्कन्यापरिणायितः । विद्याम्पासेन रामाणां संगं अफ न राजतुक् ॥ १२३ ॥ तझतषितरी विने तर्कयामालस्तरा। दाखितोच कयं तस्य वंशवृद्धिर्मविष्यति ॥ १२५ ॥ अन्य तत्पु रोधाने सोमप्रभयमोश्वर । मागत वनपालात अत्यनं वंदितु ययौं ॥ १२५ । गत्या नत्या वृर्ष श्रुत्वा प्रागदोदिति तं नरः । हे नगरी है। कौशांवो पुरोका स्वामो उस समय राजा हरिबाइन था जो कि न्याय मार्गके अनुसार
प्रजाका पालन करनेवाला था। उसकी स्त्रीका नाम शशिप्रभा था और उन दोनोंसे उत्पन्न पुत्र' ko सुकोशल था ॥ १२१-१२२॥ कुमार सुकोशल गुरुका अतिशय विनयी था इसलिये पूर्व पुण्यके
उदयसे भगवान जिनेन्द्र प्रति पादित समस्त सिद्धान्तको वह थोड़े ही दिनोंमें पढ़ गया था। जिस समय वह पूर्ण युवा होगया उसके साथ अनेक कन्याओं का विवाह होगया परन्तु कुमार तसुकोशलके चित्तपर विद्याभ्यासका पूर्ण प्रभाव जमा हुआ था इस लिये परिणामोंमें सदा विरक्ति
के कारण वह उनके संग रंचमात्र भी भोग विलास करना नहीं पसन्द करता था।कुमार सुकौशल की यह लोकोत्तर विरक्ति देख उसके माता पिताको वड़ो चिन्ता होगई । दुःखित हो थे इसप्रकार विचारने लगे___यदि कुमारकी यही वैराग्यमय चेष्टा रही तो यह निश्चय है इसके कोई भी संतान नहीं हो
सकती और विना संतान के इसके वंशकी वृद्धि भी असम्भव है ॥ १२३–१२४ ॥ एक दिन कौशांवी पुरीके उद्यानमें मुनिराज सोमप्रभ आकर विराजे । वनपाल के मुखले उनका आना सुना
इसलिये उनकी वंदनाके लिये वह चल दिया।१२५॥ मुनिराजके पास पहुंचकर राजा हरिवाहनने उन्हें LI भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने जो धर्मोपदेश दिया वह सुना एवं इसप्रकार मुनिराजसे कहा
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