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初代赤味が
॥ १८२ ॥ मन्त्रयुक्तः यथा धर्म रूराजीवा मुनिं प्रति । कामरागकथामेव व्याजहार स दुर्मत्रिः ॥ १८३ ॥ सुन्दरि ! स्थूल वक्षोने ! गौरांग | मृगलोचने ! कास्ये ! प्रगाह ! तवं धर्मं वृच्छसि किं पुनः ॥ १८४ ॥ यौवन' यास्यति तून वार्धक्यं च समेष्यति । कस्मे कृत्याय देवोऽयं तव स्वात्सुप्ता १८५॥ शुद्रा तं जगो विदिता । कावार्थ सम्मर्णि पीलु गर्धमा
च फस्त्यजेत् ॥ १८६ ॥ मुनिस्तवचनं श्रुत्वा भृशं कामाकुलोऽभवत् । रत्नरम्भोतनेऽस्माकं त्यमेवासि गजेश्वरः ॥ १८७॥ पुनस्तं वृद्धि जादा वोदका जति दियं ॥ १८८ ॥ स्वत्व
शर्मा
शर्त मा रोवेल नायके ! सुन्दरी ! तुम उन्नत स्तनोंसे शोभायमान हो । गोरे अंगकी धारक हो । तुम्हारे दोनों नेत्र हिरणी के समान मनोहर हैं तुम चंद्रमुखी और प्रौढ़ उनकी हो धर्मके विषयमें तुम क्या पूछना वाहती हो ? देखो यह यौवन चला जाता हैं और बुढ़ापा आ धमकता है । तुम्हारा यह सुन्दर शरीर भोग विलासोंके लिये है सो तुम भोग विलास न कर क्यों इस महा मनोहर शरीरको निरर्थक खो रही हो और किस कार्य के लिये इसका लालन पालन कर रहीं हो । १८२ - १६५ ॥ मुनिराज विचित्रमतिकी यह बात सुनकर वेश्या बुद्धिषेणा मुस्कराने लगी एवं मुस्कराते हुए उसने यह उत्तर दिया--मुने ? काच के लिये उत्तम मणि और गधा के लिये हाथीको छोड़ता मैंने कोई नहीं देखा है । भोग विलास काच और गधा के समान हैं एवं धर्माचरण उत्तम मणि ओर हाथी के समान हैं। धर्माचरण छोड़कर भोग विलासोंसे शरीरको नष्ट करना व्यर्थ है। मुनि विचित्र मति की काम वासना प्रज्वलित हो चुकी थी । वेश्याको बातका उनके चित्तपर जरा भी असर नहीं पड़ा एवं कामसे अत्यन्त पीडित हो वे इस प्रकार कहने लगे
सुन्दरी ! तुम देवांगना के समान मनोहर रूपसे शोभायमान हो इसलिये मेरे लिये तो तुम्हीं उत्तम मति और उत्तम हाथी हो तुम्हें देखकर धर्माचरणकी ओर चित्त नहीं जा सकता ॥ १८६॥
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