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सामायिके जिनाचाविति स्यान्मनसप्तकं ॥ ११६ ॥ नित्यमेतत्सनः पातं मीन सर्व जनैर्भुवं । इत्यनेन न जायेत ज्ञानावर्णादिकोदयः ॥ ११७ ॥ अन्न्नैमिसिक' प्रोक' विधिता तत्समाचरेत् । तेन मौन मुक्तिः स्यादितोऽपि साध्यते द्वयां ॥११८॥ पुनस्तं प्राह धर्मा णः कुमारो मारविप्रः स्वामिन् प्राकृतं केन फलं च ततश्च किं ॥ १९९ तदा प्राह यमी वत्स ! शृणु त्वं सादर व्रतं । मयोच्यते तथाभूतं धर्मशीला हि साधवः ॥ १२० ॥ इह जम्बूमति दी क्षेत्रे भारतनामनि । जनतः कौशलस्तत्र कौशांबी विद्यते पुरी ॥ भो शक्ति न हो तो भगवान जितेंद्रने बाह्य अभ्यन्तर रूप सात प्रकारका मौन बतलाया है उसे धारण करना चाहिये ॥ १६५ ॥ वह मौन इस प्रकार है
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मि के समय मौन रखना मैथुन स्नान भोजन मल ( मूत्र विष्ठा) का मोचन सामायिक
भगवान जितेंन्द्रकी पूजा वंदना आदि में मौन रखना | समस्त मनुष्यों को चाहिये कि वे प्रतिदिन इस सात प्रकार के मौनको धारण करें ऐसा करनेसे उनके ज्ञानावरण आदि कमका नहीं हो सकता ।। ११६-११७ ॥ तथा इस नित्य मौन के सिवाय नैमित्तिक - किसी खास समयका भी मौन बतलाया है उसका भी विधि पूर्वक आचरण करना चाहिये। उस नैमित्तिक मौनके धारण करने से भी परम्परासे मोच मिलती है और इह लोक परलोक दोनों लोकों का सुधार होता है । मुनिराजसे इस प्रकार गृहस्थ के योग्य धर्मका स्वरूप सुनकर धर्मात्मा कुमार प्रीतिकरने पुनः उनसे यह पूछा - भगवन् ! पूर्व जन्म में मैंने कौनसा घोर तप तपा था जिससे मुझे यह विभूति इस भवमें प्राप्त हुई है । उत्तरमें मुनिराज धर्मरुचिने कहा- वत्स! मैं यथार्थ रूपसे तुम्हारे पूर्व भवका वृतान्त सुनाता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो ठीक ही है मुनिगण धर्म शोल हुआ ही करते हैं ॥ ११८ - १२० ॥
इसी जंबूद्वीपके भरतच त्रमें एक कोशल नामका देश है और उसमें कौशांबी नामकी प्रसिद्ध
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