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नार्थ' बने गता । तत्रायातोऽवधिज्ञानी पिहितास्त्रनाममाक् ॥ १३३ ॥ जनतापरिवोत' त' तेजःपुंज' विलोक्य सा । आगता बन्दितु दीना दीनानाथं यीश्वरं ॥ १३४ ॥ ननाम कुड्मलीकृत्य करयोः संयताप्रिर्म । समीपे संस्थिता पुण्याद्ध श्रुत्वाऽवदन्मुनिं ॥ १३५ ॥ हे स्वामिन्! किं कृतं पापं मया शक्येन दुर्भगा दुधा ईशनाथ! वभूवाहं च दुःखिन | १३६६ मुनीराण हे पुलि ! दुःख' माकुरु माकुरु । जोवः पापं करोत्येव तद्विको हि दुःसदः ॥ १३७ ॥ ततोऽवदत्तुङ्गभद्रा सा सत्यं देव मया वितं । पनो विलीयते येन तदुत्रतं
एक दिनकी बात है कि वह लकड़ी लाने के लिये वनको गई। वहां पर एक पिहितास्रव नाम के अवधिज्ञानी मुनिराज विराजमान थे। उनके चारो ओर अनेक जन विद्यमान थे इसलिये उनके मध्यमें वे तेजपुंज सरीखे जान पड़ते थे। दीन कन्या तुरंगभद्रा भी उनके पास आई। मुनिराज की भक्ति पूर्वक वंदना की । नमस्कार किया। हाथ जोड़कर उनके समीप बैठ गई । पुण्यके उदयसे धर्मोपदेश सुना । और विनय पूर्वक मुनिराज से यह पूछा
स्वामिन्! एवं जन्ममें मैंने ऐसा कौनसा घोर पाप किया था जिससे मैं महा बदसूरत निंध कार्य करनेवाली और दुःखिनो हुई हूं। उत्तरमें मुनिराजने कहा
पुत्रि ! तू किसी बातका अपने चित्त दुःख न कर । यह जीव सदा अनेक प्रकारके पाप करता ही रहता है और उनका दुःखदायो फल भोगता रहता है ।। १३३ - ९३७ ॥ प्रोतिंकरके ये वचन सुन तुरंगभद्राने कहा - कृपानाथ इसमें कोई संदेह नहीं मैंने अवश्य दुकका उपा जन किया है। अब यह बतलाइये कि किस उपाय से मेरे इन सब पापों का नाश होवे । उत्तर में ध्यानशील अवधिज्ञानी मुनिराजने कहा
पुत्री ! तुम स्वर्ग और मोक्ष सुखके देने बाले मौन व्रतको धारण करो । मौन व्रतके धारण | करने से तुम्हारा यह सब संकट कट जायगा । मुनिराज के मुखसे यह बात सुनकर तुंगभद्राने
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