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मृत्वाऽभूधारो मृगः । पुनीत्वा स संजो कुटाहिः ऋधान्वितः ॥ २११ ॥ अन्य स गजस्तोयं पातु मासोपचासवान् | यूपके सरिणी नाम सरितोय प्रविष्टवान् ॥ २१२३क्षामकायोऽस्तत्तत्र कामे कुञ्जराधिपः । सर्पस्तं पतितं दृष्ट्या पूर्ववैराच्चुकोप सः॥ २१३ ॥ आरुह्य मस्तकं तस्य पोलो: परमधर्मिणः । इन्दशीतिरुम स च्यालः साहास्तद्विजाहाति न ॥ २१४॥ सारङ्गस्तद्विषणेव समाधि l मरणादभूत । विमाने श्रीधरोदेवः सहस्रारे रविप्रभे ॥ २१५ ॥ सचिवः सिंहसेनस्य धम्मिल्लास्यश्व स मृतः। तत्रैव कानने सोऽभूत
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___ मन्त्री सत्यघोषकाजीव जो मर कर सर्प हुआ था और राजा सिंहसेनको काटनेसे वह उनका * वरी होचुका था अपनी सर्पको पर्यायसे मरकर वह चमर मृग हुआ था एवं पुनः वहांसे मरकर क्रोधके कारण वह कुर्कुट जातिका सर्प होगया ॥ २११॥
एक दिनकी बात है कि एक मासका उपवासी वह आशनिघोष हाथी यूपकेसरिणी नामक नदीके किनारे जल पीनेको अभिलापासे गया। वह एकदम कृशशरीरका धारक था इसलिये उसके Lal गाड़े कीचड़में फसकर गिर गया। उसके पूर्वभवका वैरी वह सर्प भी वहीं पर उत्पन्न हो गया बस
हाथी अशनिघोषको देखते ही पूर्वभवके वैरसे उसका क्रोध उमड़ गया । परम धर्मात्मा उस IA) हाथीके मस्तकपर वह चढ़ गया एवं उसे डसलिया ठीक ही है जो पापी होते हैं वे - अपने पापकों को छोड़ते नहीं ॥ २१२-२१४ ॥ हाथो अशनिघोषने सरके तीब्र विषके कारण |
समाधिमरण पूर्वक अपने प्राण छोड़े एवं वह सूर्यके समान देदीप्यमान सहस्त्रारविमानमें श्रीधर नामका देव हो गया ॥ २१५ ॥ राजा सिंहसेनका जो धम्मिल्ल नामका मन्त्री था वह मरकर उसी | वनमें जिसमें कि हाथी अशनिघोष उत्पन्न हुआ था बन्दर हो गया एवं हाथी और उसको आपस में गहरी मित्रता हो गई ॥२१६ ॥ जिलतमय बन्दरने अपने मित्र हाथीको सर्पसे डसा देखा मारे