Book Title: Vimalnath Puran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 307
________________ Home पतितं नागं ददर्शावधिलोधनः ॥ २२३ ।। तदा संभावयामास चेतसीति मुहुर्मुः । धन्यं व्रतं यतोजीवस्तियंगपि गुगेभवेत् ॥ २२४॥ धन्यास्ते गुरबो भूमौ शानसारङ्गमध्यमाः। तरन्ति सारयंत्येव नौका इव व्रतं यतः ॥ २२५ ॥ आरभ्य तदनं देवो वभोज स्वासपद अस्पातसमुद्र द्वीप क्रीष्टयन् स्थितः ॥२२० । कोहाशैलेषु देवीमिः शब्दभोगो महद्धिकः । रेमे तपः समहतं फलं लश्या लसद्युति ॥ २२७ ।। चतुर्हस्तोन्नतांग स सप्तायुविवर्जितं । हैमगधिवमारेघ चन्द्रमं पुण्यसंचयं ॥ २२८ ।।अष्टादशसमुद्रायुमनसा हारमाहरन् । मष्टादशसहस्त्रश्च यत्सरैः पुण्यतोऽमरः ।। २२६ । तापत्यशः समुच्छ्यास सुगंधीकृतविश्वयं । कुर्वन् स्वर्गगपुष्पौध. वडा ही प्रसन्न हुआ और बार बार इसप्रकार विचारने लगा---व्रताचरणको धन्यवाद है जिसके कारण तिर्यंच भी जीव देव हो जाता है ॥ २२४ ॥ संसारमें वे गुरु धन्यवाद के पात्र हैं जो ज्ञानरूपो समुद्रके अन्दर विद्यमान हैं एवं नावके समान जीवोंको संसारसमुद्रसे पार करते हैं और स्वयं भी se Ma/पार होते हैं एवं जिनके द्वारा बतोंको प्राति होती है ॥ २२५ ॥ श्रीधर देवको जब अच्छी तरह ज्ञान होगया तब वह उसदिनसे वर्गकी सम्पदाको भोगने लगा । असंख्याते द्वीप और समुद्रोंमें जाकर क्रीडा करने लगा। वह विपुल ऋद्धिका धारक श्रीधर देव अनेक क्रीडा पर्वतोपर शब्द जनित भोग भोगने लगा । एवं सुन्दर कांति धारक वह तपसे जायमान उत्तम फलको पाकर सानन्द क्रीडा करने लगो ॥ २२७ ॥ देव श्रीधरका शरीर चार हाथ प्रमाण था जो कि मलमूत्र IN आदि सात धातुओंसे रहित था। चन्दनके समान महकने वाला चन्द्रमाके समान कांति वाला और पुण्यका समूह स्वरूप था । देव श्रीधरकी आयु अठारह सागर प्रमाण थी । अपने तीन पुण्य की कृपासे वह अठारह हजार र्वषबाद एक बार मनसे आहार ग्रहण करता था। अठारह पक्षोंके IES बाद ही वह उच्छ्वास लेता था जो कि अपनी सुगंधिसे समस्त दिशाओंको महकानेवाला था। * एवं वह देव सदा कल्पवृक्षोंके सुंगधित पुष्पोंसे बनी पुष्पमालाओंको धारण करता रहता था। उसके पद्म नामकी लेश्या थी। सदा भगवान जिनेंद्रका वह ध्यान करता रहता था। मेरु आदिको

Loading...

Page Navigation
1 ... 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394