________________
POS
सुखी घर्मतप्तःश्छायातरु' यथा ॥ ८४ ॥ वज्रायुधो गिरी प्रथमे मन्ये सति । प्रभूरुद्द कण्डं तस्यन् पुरुप्रस्मरत् ॥ ८५ ॥ अथ रत्नायुधो राजा शक्तो भोगेषु प्रत्यक्षं । धर्म त्यक्त्वातित्वानि चिरमन्त्रभूत् ॥८६॥ पत्येकदा तस्य दानवपदवत् | कुम्भानुमृद्रा मनोहरवने गतः ॥ ८३ ॥ तहारण्ये मुनिर्वज्र दस्ताख्योऽपि समागतः । लोकानुयोगमूचे स नानाधर्मात्मकं यतः ॥ ८८ ॥ तदा शास्त्र ं गजः श्रुत्वा मेवादिविजयाहृयः । पूर्वजन्मस्मृतिं प्रापत्निनित्मानमञ्जसा ॥ ८ ॥ तिर्यक्त्वं च मया प्राप्त मुनिराज चक्रायुधने भी पूर्ण रूपस े अपनी आत्माका ध्यान किया जिससे उन्होंने परमपद मोक्ष पदको पा लिया और वे अविनाशी सुख भोगनेवाले वन गये ॥ ८४ ॥ मुनिराज वज्रायुध भी प्रीष्म ऋतु पर्वतों के अग्रभागपर तप तपने लगे । शीत ऋतु में नदियोके तटोंपर और वर्षा तुमें वृक्षोंके नीचे बैठकर उन्होंने तप तपना प्रारम्भ कर दिया तथा वे प्रति समय भगवान वाम देवके गुणोंका स्मरण करने लगे ॥ ८५ ॥
वज्रायुधका पुत्र कुमार रत्नाययुध जिस समय राजा बन गया तो धर्मका सर्वथा परित्याग कर वह प्रति समय भोगोंमे मग्न होने लगा और भोगोंका अति लोलुपी हो उनके सुखोंको भोगने लगा ॥ ८६ ॥ राजा रत्नायुधका एक मत हस्ती था जिसके कि गंडस्थलोंसे सदा मद करता था अतएव वह साक्षात् मेघ सरीखा जान पड़ता था । उसके दोनों कुम्भस्थल पहाड़की चोटी सरीखे थे जिससे वह साचात् पर्वत सरीखा जान पड़ता था । एक दिन वह मनोहर नामक वन में गया वहां पर उस समय एक वज्रदन्त नामके मुनिराज आये थे और वे अनेक धर्म स्वरूप लोकानुयोगका वर्णन कर रहे थे। हाथी मेघ विजयको भी धर्मोपदेश सुनने का अवसर मिल गया धर्मोपदेश सुनते ही उसे पूर्व जन्मका स्मरण होगया और वह इस प्रकार अपनी जिन्दा करने
लगा ॥। ८७५-८६ ॥
ava
静福鍋屋