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चमल
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पूर्वपापोदयादिति । मुटुमुटुर्विनिंद्य स्वं नान्यदफलं तथा ॥ १० ॥ संस्तुस्थिति ध्यावत् सामजो न भ्रयते । विपाः
स्थी श्रुतरास्वश्च होद्वशः ॥ ६२ ॥ सत्संग: पाकली त्येवाचिराद्रव्यात्मनः भुवि । घुरत्या साया अच्छयामारि विला ॥ ६२ ॥ यथा पुत्रपदस्पर्शाद्दर्भ इन्द्रशिरः स्थितः । सव्यापसव्यन्तं स्थायि पक्षादीनां वचोऽर्हता ॥ ६३ ॥ तादृक्ष' संगजं दृष्ट्या दुःस्थितं नृपः ॥ व्याकुलभूमापन्नः पृष्टधान् मन्त्रिवैद्यकान् ॥ ६४ ॥ व्रत वैद्या गजस्यास्य को विकारोऽस्ति समितं । विकाराभावतः प्रोचुस्ते वैद्याः श्रुतवार्तिकाः ॥ १५ ॥ अनुभा श्रूयतां राजन्! कुञ्जरोऽयं कृपामयः । धर्म' श्रुत्वा कुतश्चिच्च मुनेर्जातिस्रोऽभवत् ॥
पूर्व पाप के उदयसे मैंने यह तियंच गति पाई है। मुझसे बढ़कर पापी कौन है बस इसप्रकार अपनी प्रतिक्षण निन्दा करने लगा। वनके साजे फलों का भी उसने खाना छोड़ दिया ॥ ६० ॥ धर्म तत्वका यथार्थ रूपसे श्रवण करने वाला वह हाथी मेघ विजय रातदिन संसारकी असारता मानने लगा । वनमें घूमना उसने सर्वथा छोड़ दिया जिससे वह चाहे भूखा हो चाहे प्यासा हो एक ही जगह वह निश्चल खड़ा रहने लगा ॥ ६१ ॥ जो पुरुष भव्यजीव हैं उन्हें सत्सङ्गति अवश्य फल के देनेवाली होती है क्योंकि यह वात स्पष्ट रूपसे दीख पड़ती है कि काली भी कोयल वसंत ऋतु संसर्गसे मीठे और मनोहर शब्द करने वाली हो जाती है एवं जिस दर्भ घासका भगवान जिनेंद्र के पैर से स्पर्श हो जाता है वह इन्द्रके मस्तकका भूषण बन जाता है तथा भगवान अतके संसर्गसे उनका बचन भी पक्ष दिन मास आदिके भले बुरेका सूचक होजाता है। इसलिये सत्संगतिका प्रभाव अचिन्त्य है ॥६१ - ६३ ॥ मेघ विजय हाथीकी इस प्रकार दुःखित अवस्था देख कर राजा रत्नायुत्र एक दम व्याकुल होगया ओर उसने शीघ्र ही मंत्री और वैद्योको बुलाकर इस
प्रकार पूछा
वैद्यो ! शीघ्र बताओ हाथी मेघ बिजयको यह क्या विकार उत्पन्न होगया है जिससे यह एक
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माधवनार