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आठवां सर्ग ।
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मादिव पर ज्योतिः सिद्ध' सार्थगोचरं । शिक्षोद्धार जमत्कार गोपाऱ्या संस्मराम्यहं॥१॥ अर्थचान वने व्याधो नाम्ना गासवानिति । द्वाट्या तं पतितं नागं तुतोष हृदये निजे ॥२॥ शुक्तिजामि रदौ तस्य भूरिजांसि चोन्नती। आदाय पतवान् सिंहपसने शवराप्रणीः ॥ ३॥ धनमित्रोऽस्ति तोच राजश्रेष्ठी शुभाशयः । ददौ तस्मै स सौ तानि बहुमूल्यानि चादरात् ॥ ४ ।। पूर्ण. चन्द्रमहीशाय सोऽपि श्रेष्ठी ददौ मुझ । शुक्तिजानि च दन्तौ द्वौ शुक्रतेजांसि सुन्दरौ ॥ ५ ॥ पूर्णच'द्रोऽपि तवय्या व्यधात्यादवतुष्टयं ___ जो भगवान ऋषभदेव उत्कृष्ट ज्योतीस्वरूप हैं । समस्त कम्मों से रहित सिद्धस्वरूप हैं । समस्त पदार्थोंके जानकार सर्वज्ञ हैं । जगतमें वास्तविक शिक्षा प्रदान करनेवाले हैं और गोपबड़े २ मुनियोंसे स्तुत है उन भगवान ऋषभदेवको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥ १॥ जिस
बनमें हाथी अशनिघोष मरा था उसी वनमें शृगालवान नामका एक भील रहता था । हाथीको | ISI इसप्रकार मरा देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। अत्यन्त देदीप्यमान गजमोती और दांत उसने ले लिये
और वह राजा पूर्णचन्द्रकी राजधानी सिंहपुरकी ओर चल दिया ॥ २-३॥ सिंहपुरमें उससमय एक धनमित्र नामका सेठ रहता था जो कि राज सेठ था ओर उत्तम हृदयका था । भीलने दोनों
दांत और गजमोती जो ; बहुमूल्य थे उस सेटको जाकर दे दिये ॥ ४॥ राजसेठ धमित्रने द भी उसे बहुमूल्य बस्तु २ . क राजा पूर्णचन्द्रकी भेंट कर दिये उन्हें देखकर पूर्णचन्द्र वड़ा प्रसन्न
हुआ क्योंकि वे गजमोला क विमानके समान देदीप्यमान थे और दोनों दांत परम सुन्दर थे IS.॥५॥ रति प्रेमी और शोभामें कुबेरकी उपमा धारण करनेवाले राजा पूर्णचन्द्रने उन दोनों दांतों
हिपहपरण्यायपाडया
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