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花粉
पुङ्गवः । संसारानित्यतां सिंत्य विरागत्वमुपागतः ॥ १३ ॥ गृहीतधर्मतत्त्वोऽसौ चिरं राज्यपालयत्। सम्यक्त्वालंकृतांगः सन् कामिनीबल्लभो भृशं ॥ १४ ॥ रामचापि कालांते निदानमकरोदिति । पतेषां मे पुनर्भूयात्संयोगः स्नेहतो ध्रुवं ॥ १५ ॥ महाशुक विमाने ऽभूद्भास्करे मास्कराह्वयः । ऋतुन्द्रसमुद्रायुः पालेश्यो हिमद्युतिः ॥ १६ ॥ षोडशायुतवर्षैश्च मानसाहारमाहरन् । पक्षैः षोडशभिर्देयः श्वसन् चिक्रियभूषितः ॥ १७ चतुर्बाहुप्रमाणांगोऽसंध्योपाधिषु व्रजन्। यात्रार्थमप्सरोग्रासपरिषतोऽरुणप्रभः ॥ १८ ॥ पूर्णचन्द्रोऽपि तत्रैव लेवलोके वृषोदयात् । वैदूर्ये व्योमयाने च शैडूर्यास्योऽमरोऽभवत् ॥ १६ ॥ सिंचन्द्रमद्रोऽपि तपस्तप्त्वातिदुष्करं । प्रीति विमानेऽभूदूर्ध्वयोर्ध्वके ॥ २० ॥ एकविंशत्सरिस्पायुः षष्टमः श्वभ्रकावधिः । शुक्ललेश्यस्तुषाराभो बाहुसाधै कदेदभाक् ॥२१॥ थे जिस समय उन्होंने अपने पूर्व भवका वृतांत सुना वे एक दम संसारसे भयभीत होगये । उसी समय अपने मनमें संसारकी श्रनित्यता विचारने लगे एवं परिणामोंमे सदा वैराग्य वारण कर ही राज्य करते रहे ॥ १३ ॥ धर्मात्मा होकर उन्होंने बहुत काल तक राज्यका पालन किया एवं अनेक स्त्रियोंके प्यारे होकर भी उन्होंने अपनी आत्मा सम्यग्दर्शनसे ही अलंकृत खखी ॥ १४ ॥ मृत्युके समय आर्यिका रामदत्ताने मोहवश यह निदान बांध लिया कि इन पुत्रोंके साथ फिर भी मेरा सम्बन्ध हो । वह मरकर महाशुक्र स्वर्गके भास्कर नामक विमानमें भास्कर नामका देव होगया जो कि सोलह सागरकी आयुका धारक था। पदम लेश्यासे शोभायमान था । चन्द्रमा के समान मनोहर था । सोलह हजार वर्षोंके बाद वह एकवार मनसे आहार ग्रहण करता था। सोलह पक्षोंके वाद उसास लेता था । विक्रिया शक्तिका धारक था। चार हाथ प्रमाण शरीरका धारक था । अनेक बांगनाओंसे मण्डित हो असंख्याते द्वीप और समुद्रो में यात्रा करता था एवं सूर्य के समान देदीप्यमान था । । १५ – १८ ॥ राजा पूर्ण चन्द्र भी पुण्यके उदयसे उसी स्वर्ग के बैड्र्य नामक विमान में ये नामका देव हुआ था। मुनिराज सिंहचन्द्रने भी घोर तप तपा और आयुके अन्तमें मर कर वे उर्ध्व वेयक के प्रीतिंकर बिमानमें जाकर अहमिंद्र होगये जो कि इक्कीस सागरकी अायुके
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