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जाच सुदराः । भोगान् दशविमान भुक्त्या प्रति शिवेच्छया ॥ ४५ ॥ सदै। स्त्रोसनासक्ता लोभिनो मानिनो नगः । अमेध्यकर्दम FO कीर्णपे ते शूकरा इव ॥४६॥ स्वार्थमुख्य सुखो त्यक्त्वा ये ध्यायति पर महः । अन्तमुहूर्ततस्तेऽपि कर्मालि त्य क्ष्णुवंत्यहो ॥१७॥
:इत्यादितरघसद्धीज ध्यानयध्या मनीरतानासौ चिंतयामास मानसे रशिमवेगः ॥४८॥ आधिपत्ये सति प्राज्य भूरिभोगेषु Lati सत्सु वा। समासोन्मरणं नन ताई कि तैः सुभंगुरः ॥ ४६॥ साधयामोशं धर्म' यतो न स्यात्पुनर्भवः । विचिंत्येत्यं स जप्राह सस. सम्यक्त्व सुसंयम ॥ ५० ॥ परिणाम विशुद्ध .स सपस्तप्त्याऽगरोधसि | धारणत्वं च संप्राप्तः सद्यो गगनगोचर ॥ ५ ॥ बिहरन्नेवादा
सोऽपि रश्मिवेगो यमोश्करः । कांचनाम्यगुइ दृष्ट्या तस्यौ तत्र समाधये ॥ ५२ ॥ पर्यकासनमाकई ध्यानस्तिमिललोचनं । ध्यायत रूपी कूपमें पड़े रहते हैं। किन्तु जो महापुरुष स्वार्थ परिपूर्ण सुखका सर्वथा परित्याग कर चिदानन्द चैतन्य स्वरूप आत्माका ध्यान करते हैं देखते २ वे अन्तर्मुहुर्तमें समस्त कर्मोको खिपा देते है ॥ ॥ ४६-४७ ॥ राजा रश्मिवेगने मुनिराज हरिचंद्रसे जव यह धर्मका खरूप सुना तो वह मन ही मन ऐसा विचारने लगा--
विशाल राज्य और विपुल भोगोंके रहते भी जब संसारमें मरण है तब क्षण भरमें विनश जानेवाले राज्य भोग आदिको अपनाना व्यर्थ है। मैं अब उस परम पावन धर्मका आराधन करूंगा जिससे मझे फिर संसारमें न घमना पड़े वस उसने यह दृढ विचार कर शीघ्र ही सम्यग्द
शेनके साथ संयम धारण कर लिया दिगम्बरी दीक्षासे दीक्षित होगया ॥ ४८-५०॥ परिणामों 1 को विशेष विशुद्धिसे उन्होंने उग्र तप तपा। तपके प्रभावसे चारण ऋद्धि प्राप्त होगई जिससे वे
आकाशमें भ्रमण करने लगे ॥५१॥ एक दिनकी बात है कि विहार करते करते ने मुनिराज रश्मिवेग कांचन नामकी गुफाके पास जा पहुंचे और उसे समाधिके उचित जानकर उसमें विराज गये। वहांपर उन्होंने पयक आसन मार लिया। ध्यानसे दोनों नेत्र निश्चल कर लिये एवं वाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकारको आकुलतासे रहित वे चिदानन्द चैतन्य स्वरूप परमात्माका ध्यान करने
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长长长点。