________________
-मल ३१६
習作が歌
俺が俺
चिरमुनिचन्द्राख्यो मुनिधर्मानुशासनात् । सूर्यावर्ती नृपस्त्यक्त्वा राज्यं संयममग्रहीत् ॥ ३३ ॥ तद्वियोगोत्यदुःखेन विक्लवा सा धरा । दीक्षां समग्रहीद्भावाद्भवभोगोगनिस्पर्श | ३४ ॥ श्रुत्वा जामातृवृभ्योश्च दीक्षाग्रहणमुत्तमं । श्रोधरा संयमं प्रापनुगुणश्रत्यार्थि कांतिके || ३५ || रश्मिधेगोऽधिगम्याशु राज्य कामाधिको वभो । भुंजन पुराकृतं पुण्यं पुण्यचेताः प्रसन्नधीः ॥ ३६ ॥ अन्यदा रश्मि गोऽगासिद्धकूट जिनालयं । वदितुं क्रादितु चैष मन्याः स्युः पुण्यबुद्धयः ॥ ३७ ॥ हरिचन्द्रायं तत्र दृष्ट्वा चारणसंयमं । पुरस्तात्सं
त
नामके मुनिराज के दर्शन होगये। उनसे मुनिधर्मका उपदेश सुनकर उन्हें संसार शरीर भोगों से वैराग्य होगया । राज्यका सर्वथा परित्याग कर दिया और दिगम्बरी दीक्षा धारण करली ॥ ३३ ॥ राजा सूर्यावर्त जब मुनि बन गये तो रानो यशोधराको बड़ा कष्ट हुआ। उसे भी संसारकी असातासे वैराग्य होगया एवं संसारके भोग और उनके कारणोंसे विमुख हो उसने आर्यिका धारण कर लिये || ३४ ॥ जमाई और पुत्रीकी दीक्षाका समाचार सुन यशोधराकी मा रानी श्रीधरा भी एक दिन संसारसे विरक्त होगई और गुणवती आर्यिका के पास जाकर उसने आर्थिका| के व्रत धारण कर लिये || ३५ ॥ पिता माताके दीक्षा ले जाने पर कुमार रश्मिवेग राजा बन गये । कामदेव के समान उनकी उस समयको अद्वितीय शोभा थी । पहिले उपार्जन किये गये पुण्यके फलको भोगने वाले थे | पुण्यात्मा और प्रसन्न चित्तके धारक थे ॥ ३६ ॥
एक दिनकी बात है कि राजा रश्मिवेग सिद्धकूटके जिन मन्दिरों की वंदना के लिये और
उनके बनों में कीड़ा करनेके लिये गये ठीक ही है भव्य जीवोंकी बुद्धि पवित्र हुआ ही करती है ।
यहां पर एक हरिचन्द्र नामके चारण ऋऋद्धि धारी मुनि विद्यमान थे उन्हें देखकर राजा रश्मिवेग
भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और हाथ जोड़कर उनके सामने बैठ गया || ३७ ॥ २८ ॥ प्रामिके बदले में मुनिराज हरिचन्द्र ने राजा रश्मिवेगको धर्म वृद्धि दी एवं वे यह कहने लगे---
ANURA
情野恋恋み