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お味
飛香絶者
महर्द्धिकं । शृणु नागाधिराज ! त्वं मचो शेतिस युतं ॥ २ ॥ किं करोषि वृथा वैरं शल्यषद्भवदुःखदं । तस्मान्नश्यन्ति जीवाश्च स्यति किं नो परस्परं ॥ ३ ॥ विद्युष्ट्रो हि ते भ्राता न जातः संसृतौ भ्रमन्। को बन्धुः को न वा बन्धुः को हितश्यादितो हि कः ॥ ७ ॥ क स्तातः को न जातात: सवित्री का मदा न का । कः स्वोयः को न वा स्वीयः जाती जाती वदाहिराट् ||५|| सर्वे परस्परं जीवाः सगोनाः सन्ति वस्तुतः। शत्रवोऽपि तथा सर्वे मातृपितृसहोदराः ॥ ६ ॥ पूर्वजन्मनि ते भ्राता संजय तो महामुनिः । मदण्डयन्महाक्रोधाद्विद्यु इन्द्र कृतागस' ॥ ७ ॥ ततो वैरादयं लेटो भूत्वा जातिस्मोऽधुना । महादुःख' चकारोच्चैः स जयंतस्य सन्मुनेः ॥ ८ ॥ भ्रातर ं तत्र
प्रिय नागेंद्र ! तुम मेरे न्यायपूर्वक वचनोंको सुनो तुम जो विद्याधर विद्युष्ट्र के साथ वैर बांध रहे हो वह वृथा है क्योंकि वैर भव भवमें शल्यके समान दुःख देनेवाला है । इसी बैरके कारण जीव नष्ट होते रहते हैं और आपसमें एक दूसरेको छेदने के लिये उद्यत हो जाते हैं । संसारमें भ्रमण करता हुआ यह विद्युद्दष्ट्र क्या तुम्हारा भाई किसी भवमें नहीं हुआ ? अनेक बार हो चुका है, क्योंकि संसार में भ्रमण करते हुए इस जीवका जन्म जन्ममें कौन तो बंधु नहीं हुआ और कौन अबंधु, बैरीनहीं हुआ ! कौन हितकारी नहीं हुआ और कौन अहितकारी नहीं हुआ । कौन तात नहीं हुआ और कौन वेतात नहीं हुआ । कौन माता नहीं हुई और कौन श्रमाता स्त्री आदि नहीं हुई । एवं कौन अपना नहीं 'हुआ और कौन पराया नहीं हुआ ! | भाई नागेंद्र ! संसारमें भ्रमण करते 'हुए ये सब जीव नियमसे अपने सगे हो चुके हैं। तथा जो इस समय शत्रु दीख पड़ते हैं वे भी माता पिता और भाई हो चुके हैं ॥ २६ ॥ पूर्व जन्म में तुम्हारे भाई संजयन्त मुनिराजने अपराधी विद्युदंष्ट्रको क्रुद्ध हो दराड़ दिया था उसी वैरसे मरकर यह विद्युदंष्ट्र विद्याधर हुआ। मुनिराज सञ्जयन्तको देखकर इसे पूर्व जन्मका स्मरण हो गया उसीसे इसने मुनिराज सञ्जयन्तको विशेष कष्ट पहुंचाया ॥ ७-८ ॥ यह पापी विद्युद्दष्ट्र चार जन्मोंसे वार वार तुम्हारे भाईका वैरी चला आया है उसी
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