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द्विषां ॥ ४२ ॥ बिजयासर श्रेण्यामधामात्यलकं पुरं । तत्र राजा महाकच्छो भामिनी तस्य दामिनी ॥ ५० ॥ तयोः पुत्री प्रियंगुश्री रूपा वतरां । हष्ट्येकास वां राजा थौवनातिशैशवों ॥ ५१ ॥ इति वितं समादध्यौ कस्मा वा प्रदीयते । राज्ञे यो ग्याय रूपेण जिसचेतोजतेजसे ।। ५२ ।। नैमित्तिकार मध्या स्तवकग्लु'स्वामिनं । कन्याया मकरोविन्तां तदानयन एव सः ॥ ५३ ॥ मायाप्ति' पृयुग्मकं ह्रस्वकर्णं विधाय सः । जगाम स्तयकग्लुद्धे मुक्तास्तवकारयिते ॥ ५४ ॥ दुर्गं हि दूरतो दृष्ट्वा दुर्निरीक्ष्यं ततर्फ नु । श्वेतांगः शैलराजो नु हेमशैको नु देयपूः ॥ ५५ ॥ संभावयन्निति द्वार' सहस्रस्तमतोरणं । पूर्बकाप्टोऽयं योऽग्टलक्षा दश बढ़कर संसार में कोई भी रूपवती उससमय कन्या न थी जिससमय कन्या प्रियंगुलोको यौवनसे • मंडित देखा राजा महाकच्छके मनमें यह चिंता होने लगी
अपने सुन्दर रूपसे कामदेवकी कांतिको फीके करनेवाले किस योग्य राजाके लिये यह कन्या प्रदान करनी चाहिये ? बस राजा महाकच्छने शोघ्र हो नैमित्तिकको बुलाया और उससे यह जानकर कि इस कन्याका स्वामी स्तबकग्लुछ नगरका राजा रावण होगा, शीघ्र ही वह उसको अपने नगर में ले आनेकी चिन्ता करने लगा ॥ ५०-५२ ॥ अच्छी तरह सोच विचार कर राजा : महाकच्छने शीघ्र ही विशाल वक्षस्थल और छोटे छोटे कानों से शोभायमान एक माया मयी घोड़ा बनाया एवं मुक्ताओंकी मालानोंसे शोभायमान स्तवकग्लु छ नगरकी ओर प्रयाण कर दिया। स्तवकग्लु छ नगरका किला एक विशाल किला था। राजा महाकच्छ उसे देखकर विश्वार करने लगा कि क्या यह कैलाश पर्वत है वा मेरुपर्वत वा अन्य सुवर्ण मयी पर्वत अथवा कोई देवनगर है ऐसा विचार करता २ राजा महाकच्छ किले के दरवाजेके पास पहुंच गया जो दरवाजा हजार स्तंभोपर लटकते हुए तोरणोंसे शोभायमान था । जिसका मुख पूर्वको खोर था एवं बीस लाख वीर योधाोंसे सदा रचित रहता था ।। ५३ – ५५ ॥ इसप्रकार किलेको देखकर वह विद्याधर
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