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भगवनामा वणिक्तः ॥ १३२॥ श्रुत्वा धर्मे ततः प्राज्यं ददों दानं स धोधनः । व्ययोकुर्व तमालोक्य तस्मै माता चुकोप च ॥ १३३॥ वित्या वार्यमाणोऽपि दानं दातु ं समुत्सुकः । वभूव च तदा कीर्ति चैतालिक मुखोद्गता ॥ १३४ ॥ दत्तिणां कोधनोऽ रागवित्तानां मोहवः शूराणां कातराणां व रणौत्सुक्यादनं च किं १३५ कोपादसहमाना सा तद्दानं दुर्मतिप्रिया । काले मृत्वासनायां व्याधी जम धधे शात् ॥ १३६ ॥ रौद्रध्यानाद्भवेऽजीवी व्याघ्रमारयोनिषु । प्रयातिपन्नगीभूय बुधोऽतस्तत्परित्यजेत् ॥ १३७॥ एकदा भद्रमि नाख्यः क्रीडार्थ' सङ्घनं गतः । दष्ट्रा तं सा महाकोपादादत्स्वसुत स्वरा ॥ १३८ ॥ यतः फोधो यतो माया यतो धर्मार्थनाशनं यतो बेर' यतो हिंसा धित' लोभं ध नाचरेत् ॥ १३६ ॥ स मृत्वा स्नेहतो भव्य रामदोदभवत् सिंदचन्द्रः सुतो धीमान, मोन
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जिस समय व्याघ्रीके खानेके बाद सेठ भद्रमित्रकी मृत्यु हुई वह पूर्व भवके स्नेहके संबंध से
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होकर रामें जाकर युद्ध करते हैं । भद्रमित्रकी मां अत्यन्त दुर्बुद्धि थी भद्रमित्रके द्वारा दिये गये दानको मारेकोधके उसने अच्छा नहीं कहा मरकर बह कर्मके उदयसे उसी आसना नामकी अट
में व्याधी हो गई । ठीक ही है रौद्रध्यान ऐसी बुरी चीज है कि उससे जीवको व्याघ्री और विल्ली आदी योनियों में जन्म धारण करना पड़ता है । सर्प हो जाना पड़ता है इसलिये जो बुद्धिमान हैं। उन्हें चाहिये कि वे रौद्र ध्यानका सर्वथा त्यागकर दें -- कभी उसके जालमें न फसें ॥१३२ - १३६॥ एक दिनकी बात है कि सेठ भद्रमित्र कीडार्थ बनमें गया। उसकी पूर्वभवकी मा व्याधीकी दृष्टि उसपर पड़ी और उसने पूर्वभव के बैरके कारण भद्रमित्रको खा डाला । यह निश्चय है कि इस दुष्ट लोभ ही कारण क्रोध, माया, धर्म और धनका नाश एवं वैर होता है इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं। कि ऐसे दुष्ट लोभके लिये धिक्कार है ॥१३७७१३८ || राजा सिंहसेनकी रानी रामदत्ताने भद्रमित्रकी पूर्ण प्रतिष्ठा रक्खी थी इसलिये भद्रमित्र रानी रामदत्तासे विशेष स्नेह रखते थे और उसे अपनी मासे भी अधिक मानते थे ।
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