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जन् ! सांप्रतं क मतोऽसि हा ॥१५७ किं करोमि कतिष्ठामि कथं प्राणान् दधाम्यहं । विना स्वां भूतले राज्य विषज्यालोपमं मन ।१५८विद्यमाने धवे स्रोणां तन्नयह करवत । सदभावे हि राज्यादि पराधीनत्वतोऽरिषत् ।। १५६ ।। विलापं भूरि कृत्वैव विरराम नपप्रिया सदा तत्र समायाते वे आर्य प्रतिबोधने ।। १६० ।।पका दांतमती ख्याता हिरण्यादिमती परा । पताभ्यां रामदत्ता सा वोधिताख्याय सवृष ।। १६१ ।। द्रव्यक्षेत्रादिसद्भाव झात्वापणे तयोस्तदा । जग्राइ संयम शुद्धं रामदत्ता पवित्रधीः ।। १६२॥ सिंहचन्द्रोऽभव प्राजा सिंहोऽरातिगजोत्करे । पूर्णचन्दोलधुम्राता योवराज्ये बभूव च ॥ १६३ ॥ तयोर्भुजानयो राज्यमिवाभूवत्सरः क्षण। एकदा सिंहचन्द्रस्य पित्रोःचं वागत ।। १६३ ॥ तदानीमागतं श्रुत्वा पूर्णचन्द्राभिध मुनिं । गत्या नत्वा द्विधाधर्म श्रुत्वा वैराग्यमाप सः
है। स्वामिन् ! पतिके विद्यमान रहते ही राज्य आदि समस्त पदार्थ सुखकर होते हैं किंतु - उसके मरते ही पराधीन हो जानेके कारण वे सब शत्रुके समान दुःखदायी हो जाते है ॥ १५७ ॥
१५८ । इस प्रकार वहुतसा बिलापकर बड़ी कठिनतासे रानी रामदत्ता शांत हो पाई थी कि उस | समय उसे प्रति बोध देने के लिये दो आर्यिकाये आई। दांतमती और हिरण्मती दोनों आदि
काओंके ये दो नाम थे। रानी रामदत्ताको धर्मका उपदेश दे संबोधा । रानी रामदत्ता भी पूर्ण- पंडिता थी। द्रव्य क्षेत्र आदिका स्वरूप समझकर उसने उन्हीं दोनों आर्यिकाओंके समीपमें संयम IN धारण कर लिया ॥ १५६-१६१॥ राजा सिंहसेनके मर जाने पर कुमार सिंहचन्द्र राजा बने जो
कि शत्रुरूप हाथियोंका मान मर्दन करने वाले थे एवं उनके छोटे भाई कुमार पूर्ण चन्द्रको युवराज पद प्रदान किया गया। १६२। राजा सिंहचन्द्रको राज्य करते करते एक हो वर्ष व्यतीतः हुआ
था कि अकस्मात् उनके चित्तमें पिताका दुःख उत्पन्न हो गया। उसी समय एक पूर्णचन्द्र नामके - मुनिराज भी वहां पर पधारे थे। राजा सिंहसेन उनका आगमन सुन उनके पास गये । भक्तिप
र्वक नमस्कार किया। मुनिराजके मुखसे यती और श्रावकका धर्म सुना जिससे उन्हे संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य हो गया ॥ १६३-१६४॥ राजा सिंहचन्द्रने कुल परंपरासें प्राप्त राज्य अपने छोटे
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