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त्योख्या पिकस्वना श्यामा रकाधरा सगतिगंभीरगोर्वरं ।। १८५।। तयोहिरण्ययस्याख्या पुत्री जाता मृगायणः । भोगोश्यधिपाकेन खोल्य प्राप्नोति मानवः ।। १८६ ।। बिवादिनो वदंतीत्थं नास्तिकैकांतदष्टयः । गोधूमादिसुजातीनां प्रादुर्भावो हि नान्यथा! १८७ नात्वं स्त्रो नरः स्त्रीत्वं पशुत्व नरस्तथा। प्राप्नुयान्नविचारण क्षेत्रवान्यादिवद्गतिः ।।१८८ा यादिनो भो भवद्भिश्च यदुक्तं सत्यमेव तत् । यद्धान्यमुप्यते क्षेत्र तान्योत्पतिर व हि ॥ १८ || जैनाः कर्मप्रधानीयाः नानाकर्याणि संस्यहो। अभुक्त्वा तत्क्षयो नास्ति कलरकोटिशताधिकः १६० ॥ मार मक्षेत्र समाविष्ट तत्वज्ञानादसंशय । फर्मबीजोदयो यादक समुत्पत्तिस्तु तादृशी ॥ १९१ ॥
थी। कोकिलाके समान वचन बोलने वाली थी। श्यामा थी। लाल २ होंठोंकी धारक हंसके 4 समान मनोहर गतिसे चलनेवाली गम्भीर वचन वोलनेवाली और प्रशस्त थी ॥ १८५ ॥ मगायण | का जीव ब्राह्मण, रानी सुमतिके गर्भसे हिरणवती नामकी पुत्री हुआ ठीक ही है। अति रूपसे // भोग बिलास करनेवाला पुरुष भी स्त्री हो जाता है ॥ १८६ ॥ जो . पुरुष एकांत मिथ्यादृष्टि और नास्तिक है उनका कहना यह है कि गैह्र आदि पदार्थोंके समानही जीव पदार्थकी उत्पत्ति होती है,
जीव पदार्थ अनादिनिधन नहीं क्योंकि वे यह मानते हैं कि क्षेत्रमें जिस प्रकार धान्यसे दूसरा धान्य kd उत्पन्न होता है उसी प्रकार स्त्रीसे पुरुष पुरुषसे स्त्री पशुसे पुरुष पुरुषले पशु स्वभावसेही उत्पन्न हो -
जाता है ॥१८७--१८६॥ ग्रन्थकार इसका उत्तर देते हैं कि तुम्हारा एकान्त मिथ्यादृष्टि बादियोंका कहना कथंचित ठीक है क्योंकि क्षेत्रमें जो धान्य वोया जाता है उसी धान्यकी उत्पत्ति होती है जैन सिद्धांतके अनुयायी पुरुष कर्मको प्रधान मानते है । वे कर्म अनेक प्रकारके हैं । बिना उनका फल भोगे करोड़ों कल्पकाल क्यों न बीत जाय उनका क्षय नहीं हो सकता ॥१६०॥ यह निश्चय है तत्त्व ज्ञानियोंने अपने तत्व ज्ञानसे आत्माको क्षेत्र कहा है उसमें जैसा कर्म रूपी वीज पड़ता है वैसी ! ही उत्पत्ति होती है अर्थात् पुरुषपनेका कारण यदि कर्म उत्पन्न होगा तो पुरुष उत्पन्न होगा।
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