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थपुषत्र
॥ १६५ ॥ लघवे पूर्ण चन्द्राय दावा राज्यं क्रमागतं। सिंहचन्द्रोहि तत्पार्श्वे गृहोतो मुनिः ॥ १६६ ॥ सिंहनादः सन्नममादगुणस्थितः । स तपोनानाविधं कुर्वन् खवारणपङ्कं समेत् ॥ १६७ ॥ तुर्याश्रमोत्कर्ष पुनः प्राप तपोबलात् । साधेोपसूक्ष्मादि पदार्थविषये मतः ।। १६८ ।। मनोहर वनोद्याने रामशेकश मुझ । सिंहच तपःसंख्य' दृष्ट्वा तं वदितु ं गता ॥ १६६ ॥ नत्वेति सं भाईको प्रदान किया एवं मुनिराज पूर्ण चन्द्रकेचरणकमलो में दिगम्बरी दीक्षा धारण करली २६५ मुनिराज सिंहचन्द्रने जिस समय विकथा काय आदि प्रमादों का नाश किया उससमय वे अप्र
गुणस्थानके पात्र वनगये । वे अनेक प्रकारके तपोंका आचरण करने लगे जिससे तपोंके प्रभावसे उन्हें चारण ऋद्धि प्राप्त हो जाने के कारण वे चार ऋद्धिधारी मुनिराज बन गये । तपके बलसे उन्हें मनः पर्यय नामका चौथा ज्ञान प्राप्त हो गया जिससे ढाई द्वीपके अंदर रहनेवाले शुभ पदार्थों को वे अच्छी तरह जानने लगे । १६५ - १६७ आर्यिका रामदत्ताने मनोहर नामके वन में तप करते हुए मुनिराज सिंहचन्द्रको देखा इसलिये प्रेम पूर्वक बन्दना करनेके लिये वह उनके पास गई भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया मुनिराज सिंहचन्द्र आर्थिका रामदत्ता के उसीभव के बड़े पुत्र थे इसलिये उन्हें देख पुत्रस्नेहसे उसका हृदय उमड़ आया । एवं मोहसे गद्गद हो वह इसप्रकार स्तुति करने लगी
मुने ! युवा अवस्थामें राज्यका त्याग कर आपने यह मुनि मुद्रा धारण की है इसलिये आपके लिये धन्यवाद है तुम राजा सिंहसेनके वश रूपी कमलके लिये सूर्य समान हो । विद्वान भव्यरूपी चकोर पक्षियोंके लिये चन्द्रमाके समान हो और संसारसे पार होने वाले महापुरुष हो । वस इस प्रकार स्तुतिकर आर्यिका रामदत्ता मुनिराज सिंहचन्द्र के समीप बैठ गई एवं बार बार आदर पूर्वक उनके तपकी कुशल पूछने लगी तथा उसने इसप्रकार मुनिराजसे कहा
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