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मल
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निहं तादृशं गतः । दुर्गति व पुनः प्राप्तो महापापानुबंधिनीं ॥ १२७ ॥ संतुष्य नृपतिस्तस्यै भद्रमित्राय सद्धिये
ज्येष्ट माग्यात् ददौ किं न शुभोदयात् ॥ १२८ ॥ इयमात्यस्य दुर्वृ 'स' राजालानि व्यक्तियत् । धम्मिल्लाख्याथ विप्राय तत्साचि व्यपद' ददौ || १२ || अधासनादबी दुर्गा मृगजातिसमाकुला । नानादीदरोदुगच्छद कुरविरोधुः ॥ १३० ॥ तत्रास्ते विमला कि छोतार ं तारभूतलं । कांतार ं तत्र तन्नामा भूधरो विद्यते महान् ॥ १३१ ॥ वत्र कदा समायासीरम मुमुक्षुकः । वदितु तं नतो नहीं प्राप्त हो जाती । १२६ । राजा सिंहसेनने मंत्री सत्यघोषके दुश्चरित्रपर बहुत समय तक विचार किया एवं उसकी जगह धम्मिल्ल नामके विप्रको मंत्रिपद प्रदान कर दिया ॥ ९२७ ॥
इस पृथ्वीपर एक भयंकर आसनानामकी घटवी विद्यमान थी जोकि अनेक प्रकारके मृगोंसे व्याप्त थी एवं अनेक गुफाओं के दरवाजोंपर ऊगे हुए दर्भ के अंकूरों से शोभायमान थी। उस अट ath अंदर विमल कांतार नामका बन था जो कि विस्तीर्ण पृथ्वीतलसे शोभायमान था और कांतार नामका ही उसके अंदर एक विशाल पर्वत था। उसके अंदर एक बरधर्म नामके मुनिराज आये और उनका आगमन सुन भद्रमित्र नामका सेठ पुत्र उनकी बन्दनाके लिये गया । १२२ - १३१ । मुनिराज बरधर्मने धर्मका उपदेश दिया । बुद्धिमान कुमार भद्रमित्रने धनकी असारता जान बहुत सा दान करना प्रारम्भ कर दिया । पुत्रको इस प्रकार धारा प्रवाह दान देते देख उसकी माताको बड़ा क्रोध हुआ । यद्यपि उसने भद्रमित्रको बहुत रोका परंतु उस समय भद्रमित्रके चित्तमें दान देने का पूरा उत्साह था इसलिये उसने अपनी माकी एक नहीं सुनी । भद्रमित्रकी उस समयकी इस प्रकार दान परायणता देख भाट लोग इस प्रकार उसकी प्रशंसा करने लगे
जो मनुष्य दानी है उसके लिये धन कोई चीज नहीं। जिनके चित्तमें राग भाव नहीं मोह उनका कुछभी नहीं कर सकता । जो श्रवीर हैं उनके लिये रंग क्या चीज हैं वे निर्भय