________________
संजाघटत्यही भृत्याः स्वना.क्तषिधायिनः ॥ १२१ ॥ नपे सम्बद्धवरः सन् मृत्वार्तध्यानषितः। विजिहोड गन्धनो नाम भांडागार ऽजनिष्ट सः ।। १२२ ॥ अतश्चौर्य न कर्तध्य तेन कीर्तिने जायते । अन्यायेनान्यवित्तस्य स्वीकारपचौर्यमुच्यते ॥ १२३ ॥ सौजन्य हन्यते दंशो विन'भस्य धनादिषु । विपत्तिः प्राण्पता मित्रववादिभिः सह ।। १२४॥ गुणप्रसवसंदब्धा कीर्तिरम्लानमालिका । लतेव दावसंप्लुष्टा सद्यश्चार्यण इन्यते ॥ १२५ ॥ इतीदं जानता सर्व सत्यघोषेण दुर्धिया । नैसर्गिकेण चौर्य ण तद्रत्नापतिः कृता ॥१२६॥
राधी सत्यघोपको जब राजाने यह दण्ड दिया तो उसकी आत्माको अपमान जनित नितांत कप्ट - पहा । परिणामोंकी ऋरतासे राजाके साथ उसने तीब्र वैर बांध लिया एवं आर्त ध्यानसे मर कर R वह राजाके भण्डार सहर्ष हो गया ।। २२१ ॥ यन्थकार उपदेश देते हैं कि सत्यघोषकी यह दुर्दशा
देख कर किसी मनुष्यको चोरी पाप नहीं करना चाहिये क्योंकि चोरीका कार्य करनेसे संसारमें S किसी प्रकारकी कीति नहीं होती तथा अन्याय पूर्वक दूसरेका धन हरण कर लेना चोरी कहलाता है । HAL यह चोरी काम इतना निकृष्ट है कि इससे मनुष्योंकी सज्जनता नष्ट हो जाती है । धन आदिके
सम्बन्धमें चोरी करनेवालेका विश्वास नष्ट हो जाता है। चोरी करनेवालेको जब तक वह जीता है । तब तक मित्र बन्धु आदिके साथ सदा उसे आपत्तिका सामना करना पड़ता है। जिस प्रकार सुन्दर फूलोंसे शोभायमान और विकसित लता अग्निसे झुलस जाने पर नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार |
चोरीका कार्य करनेसे अनेक गुणोंको उत्पन्न करने वाली निर्मल कीर्ति भी नष्ट हो जाती है । IS यह सब जानकर भी दुर्बुद्धि सत्यघोषने स्वभावसे ही चोरी कर भद्रमित्रके रत्नोंका अपहरण किया,
था १२२-१२४। इस चोरी रूप पापके ही कारण उसे मंत्रिपदसे हाथ धोना पड़ा। उस प्रकारका
तीब्र अपमान सहना पड़ा । १२५ । तथा राजा सिंहसेनने संतुष्ट होकर बुद्धिमान कुमार भद्रमित्रIS को राजसेठ पद प्रदान किया ठीक ही है जब शुभका उदय होता है तब कौन सी दुर्लभ भी बात
पERTY KATARIYAR
Nagarik AERAYRak