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ध्यानस्थं च बने सृताः। तत्रणस्य हास्येन भेरेवं परस्परं ॥ २॥ पराकोऽयं पुरा पिला लिनामाऽकरोवणं । का यात्यत्यभुनेश्यु. पत्या चषुस्तं तपोधनं ॥७३॥ मुनेः कर्मयशाब क्रोधः प्रलयकारकः । तेन क्रोधेन तामात्स्कंधादग्निहत्थितः ॥l| पुरं जयाल सत्र सलोक सन सखे! महापामरणाशु मुनिरकमाविशत् ।७५ अतो नर्जकगोधस्य सक्रोधस्य मुनेरपि | साम्य मुक्त मया मित्र ! तो स्यातामर्थहारिणौ १७६१ प्रतिपद्य तथागारमागत्य पितरं जगौ । प्रभोऽनु रत्नसद्वीपे यामि मित्र सम धने 199) मुदत्तस्तं तदेत्याह
यह वही दुष्ट वनसेन नामका विद्याधर राजा है जिसने कि प्रियंगुश्रीके विवाहके समय अतिशय पराक्रमी भी हमारे पिताके साथ युद्ध किया था। रे दुष्ट ! अब तू कहाँ बचकर जायगा ऐसा कहकर उन तपस्वी मुनिराजको उन्होंने जकड़ कर पकड़ लिया और उन्हें मारने ताड़ने लगे। कर्मके प्रबल उदयसे मुनिराज बजसेनके प्रलय करनेवाला क्रोध उत्पन्न होगया। क्रोधके कारण उनकी बाई भुजा-- से अग्निका फलिंगा निकला जिससे मय प्रजा राजाके समस्त स्तवकग्लुछ नगर जलकर खाख हो गया एवं पापके तीव्रभारसे वह मुनि भी नरकमें गया । इसप्रकार क्रोधी मुनिराजकी कथा सुनाकर श्रेष्ठि पुत्र भद्रमित्रसे उसके मित्र अन्य श्रेष्ठिपुत्रोंने कहा-भाई भद्रमित्र ! इसीलिये हमने धन नहीं उपार्जन करनेवाले पुरुषकी और क्रोधी मुनिकी तुलनाकी थी क्योंकि धन न उपार्जन करने-न वाला पुरुष और क्रोधी मुनि दोनों ही सञ्चित धनके नाश करनेवाले हैं अर्थात् जो हजारो वर्ष तप
कर क्रोध कर लेता है उसका समस्त तप व्यथं चला जाता है और जो पुरुष कुछ भी धन न कमा 22 कर संचित धनको बैठा २ खाता रहता है उसका भी धन समय आनेपर समस्त चला जाता है ॥
---७६ ॥ अपने मित्रोंसे इसप्रकार धन न उपार्जन करने वालेकी निन्दा सुन भद्रमिन अपने घर C लोट आया और अपने पिता सेठ सुदत्तसे इसप्रकार कहने लगा--
पूज्य पिता ! मैं अपने मित्रोंके साथ धन कमानेके लिये रत्नद्वीप जा रहा हूं। अपने प्रिय पुत्र की यह बात सुन मोही सुदत्तने कहा—प्रियपुत्र ! हमारे बहुतसा धन विद्यमान है तुम क्यों धन
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