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माधुर्य क्षरति ध्वं ॥ १४॥ अहो प्रास्तामतो नागेट वरेण गुणवारिध!। पूर्ववैरोत्थदुःवस्यबा के प्रतिकिया ।। १५॥ इत्याको रयाधीशः प्राहादित्यरमं सुरं। कथ्यतां सा कथा देव । वैरसबम्यराश्निो॥ १६॥ तदोवावेति सर्शमः ग त्वं फणिशेखर!। अमुष्मिन् वैरमुत्सृज्य तरप्रपंचं वदाम्यहं ।। १७ ॥ अप जंवमति छोपे विशाले लक्षयोजनेः। भारत वर्षमाभाति कामुकाकृतिमादधत् ॥१८॥ रारजीति पुर तत्र नानाशोभासमन्धितं । पद्मालयसुराधीशरिष्टं सिंहपुर पुरं । १६॥ सतभूनिगृहा यत्र सविलासाश्च | याषितः । रक्तोष्ठ्यः पोवरस्तन्यः सहासा मांति भूरिशः ।।२०।। यत्र दंडोऽस्ति चेत्येषु भ्रांतिरह प्रदिक्षणे । काठिन्य हृदये स्त्रोणां शांत ही बने रहते हैं ॥ १४ ॥ इसालय भाई नागेन्द्र ! तुम्हारे लिये मेरा यही हितकारी कहना है कि संसारमें तुम एक गुणशाली व्यक्ति कहे जाते हो । विद्याधर विद्युद्दष्ट के साथ तुम्हें वैर न बांधना चाहिये । भाई। तुम्हीं सोच लो पूर्व भवमे जो बैर बन्धहो चुका है उसका क्या प्रतीकार हो सकता है ? वह तो वध गया सो बंध ही गया ॥ १५ ॥ नागकुमार आदित्याभकी यह बात |
सुन धरणेद्रका क्रोध कुछ शांत पड़ गया और विद्युइष्ट का मुनिराज सञ्जयंतके साथ कैसे वैर बंधा ! IN यह कथा जाननेको उसके मनमें लालसा होगई इसलिये वह आदित्याभसे इसप्रकार कहने लगा
का मुनिराज सञ्जयन्त और विद्युइंष्ट्र के आपसो वैरसे संबन्ध रखनेवालो कथा कृपाकर कहिये। A उत्तरमें देव आदित्याभने कहा प्रिय नागराज ! मैं सारी कथा विस्तारपूर्वक कहता है। विद्याधर
विद्युद्दष्ट्र के साथ वैर छोड़कर तुम आनन्द पूर्वक सुनो-- ___एक लाख योजनके चौड़े इसी जम्बू द्वोपमें एक भरत नामका क्षेत्र है जो कि धनुषकी आकृ- तिको धारण करने वाला महा शोभायमान जान पड़ता है। प्रसिद्ध भरतवंत्रो अन्दर एक सिंह
पुर नामका नगर है जोकि अनेक प्रकारकी शोभाओंसे व्याप्त अत्यन्त शोभायमान है। लक्ष्मीके | स्थान बड़े २ देवेंद्रोंको प्यारा है और उत्तम है ॥१६-१६॥ सिंहपुर नगरके अन्दर उस समय सतखंडे
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