________________
ल
पुत्रयथ
お味調味剤味
दिया
सत्यघोष इति ध्रुवं ॥३१॥ अधास्ते पापं पुरुपुरोपमं । पतनं तथनानंदि सदानन्द भरे तं ॥ ३२॥ तल्लोवास महाश्रेष्ठी सुदत्ता ख्येशुणाधिकः । धार्मिकाणां घुरि स्थायी विनेयानां यथा गुरुः ॥ ३३ ॥ सुमित्रा भामिनी तस्य भामिनीव मनोभुवः । भ्रूभङ्गकार्मुक दृष्टिवान् व्यधात् ॥ ३४ || भइ मिलस्त्रयोरासीत् सुतः शक्रसुतोपमः । अधीताखिलसद्वियों युवा भोगपुरन्दरः ॥ ३५ ॥ एकदा द्या तुमभ्यसुता ययुः । तदाली भद्रमिदारुयस्तरमा तद्वनं गतः ॥ ३६ ॥ समयं प्राप्य ते प्रोचुर्भद्रमित्रमिति स्फुटं । मिल ! यस्तु सायेन जीवति ॥ ३७ ॥ उपापेन बिनागारे कि तिष्ठसि सर्वदा । साकनमा यिरेाहि रत्नद्वोप || ३८ ॥ तेनर्जिता मिल ! पुत्र णार्थक्षयकृता । किं भवेन्मुनिना भूमपला सधेष च ॥ ३९ ॥ जद्दासोचैस्तदा इसी पृथ्वीपर एक पद्मखण्ड नामका नगर है जो कि अपनी शोभासे इन्द्रपुरीकी समता धारण करता है । सदा नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाला है और सदा नाना प्रकारके श्रानन्दों से व्याप्त रहता है । पद्मखण्ड नगरमें एक सुदत्त नामका सेठ रहता था जो कि विपुल संपत्तिका स्वामी था । अनेक गुणोंका भण्डार था । एवं जिसप्रकार शिष्यों के लिये शिक्षा देनेवाला गुरु होता है उसीप्रकार वह धर्मात्मा पुरुषोंका गुरु स्त्ररूप था ॥ ३२-३३ ॥ सेठ सुदत्तकी स्त्रीका नाम सुमित्रा था जोकि अपनी अद्वितीय सुन्दरता में कामदेवकी स्त्रो रतिके समान जान पड़ती थी और भृकुटीरूपी धनुष पर कटान रूपी बाण चढ़ाकर वह बड़े २ देवोंके चित्त व्यथित करनेवाली थी॥ ३४ ॥ सेठ सुदत्त के सेठानी सुमित्रा उत्पन्न पुत्र भद्रमित्र था जो कि सुन्दरता में इन्द्रपुत्रके समान जान पड़ता था, समस्त विद्या का पारगामी था । युवा और पूर्णरूप से भोग भोगने वाला था । एक दिनकी बात है कि नगर निवासी समस्त सेठोंके पुत्र सिंहपुर के उद्यानमें क्रीडा करने के लिये गये । कुमार भद्रमित्र भी उनके साथ कोड़ा करनेके लिये वनमें गया । अवसर पाकर अन्य सेठ पुत्रोंने भद्रमित्र से कहा-मित्र ! अपन बणिकपुत्र कहलाते हैं। बणिकपुत्रों का जीवन व्यवसायके आधीन है । व्यवसाय केलिये तुम कोई भी उपाय न कर निरर्थक घरमें रहते हो। हम लोग व्यवसाय के लिये रत्नद्वीप
おおおおおお
家かで育