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पत्रपत्रक प
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आहे ! अत्यंतमूढत्वं सुताया दुर्वचः किल । स्वर्गियांग्या कुतो लभ्या शुभ्रा मंदारमालिका ॥ ८६ ॥ आ एवं मन्यते चेत स्वयंबरविना | मनोगतो गरो नैव सॉलभो भुवनत्रये ॥ ८७ ॥ विदयित्वेति राजा स त्रकाराशु स्वयंवरम् । नविन्यासप्राकारनस्तमं सुतोरणम् ॥ ८२॥ ततो दल दलद्वर्णं प्राहिणोद्विषयेष्वसौ । राजागत्यर्थमेत्राशु मंजुल प्राज परम् ॥ ८६ ॥ तद्धि श्रुत्वा राजानस्तला जग्मुः शुभेच्छया । यथायथं स्थिताः सर्वे कन्यापितमानसाः ॥ ६० ॥ तमित्रां लंघयन् मानुरुदियायोदयाचले | राजन्यान् बीक्षितु' कि'या रक्त मूर्तिसन्निय ॥ ६१ ॥ कन्याप्रवारणार्थ वा मंदारकुंसमः कृतिं । उत्तरतत्वतों नूनं दर्शयन् ध्वंस
कन्या परमसुन्दरीने जो वैसी प्रतिज्ञा की है वह उसकी बड़ी भारी मूढ़ता है। मंदार वृक्ष के सफेद पुष्पों की माला तो देव पहिनते हैं मनुष्योंको वह कैसे प्राप्त हो सकती है ? खैर, यदि इस कन्याका ऐसा हो वलवान आग्रह है तो विना स्वयंवरके किये तीनों लोकमें इसके लिये वेसा वर नहीं मिल सकता । स्वयंवर करनेसे ही कदाचित् प्राप्त हो सकता है इसलिये इसके वरके लिये स्वयं वरकी ही रचना करनी होगी, बस ऐसा विचार कर राजा सुन्दरने शीघ्र ही स्वयंवर मंडपके तैयार होने की आज्ञा देदी तथा वह मंडप भी रत्नोंके बने परकोटोंसे व्याप्त सुवर्णमयी स्तम्भोंसे शोभाय मान एवं लटकते हुए तोरणोंसे देदोप्यमान शीघ्र ही तैयार हो गया ॥ ८४-८८ ॥ स्वयंवर मंडप के तैयार हो जाने पर राजा सुन्दरने समस्त देशों के राजाओं के बुलाने के लिये पत्र भेजा जिसमें कि स्पष्ट रूप से स्वयंवर के समाचारको सूचित करनेवाले अक्षर अङ्कित थे एवं वह शुभ मनोहर प्रशस्तथा ॥ ८६ ॥ पत्रके पाते ही शुभ कन्याको प्राप्तिकी अभिलाषासे समस्त राजा किष्किं धापुर में आये, एवं कन्याकी प्राप्तिमें जिनका चित्त लीन है सबके सब यथायोग्य स्थानोंपर ठहर गये ॥ ६० ॥ रात्रिके बीत जानेपर पूर्व दिशा में उदयाचल पर सूर्यका उदय हुआ। वह सूर्य उदय| काल में रक्त का था इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानो प्रसन्न हो वह राजाओं के देखने के लिये आया है किंवा राजाओंकी विषय जनित लालसा पर हंसी प्रगट कर रहा है । अथवा अपने गोल
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