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| स्मनो भाषैः कर्म संदुलमत्स्यवत् । भाषास्त्रयो दि स प्रोपतो भाववद्धं ढ़ायते ॥मिथ्यात्वापिरतियोगकरप्रमादैः प्रवध्यते । वत्कार जा सूरिभिः एयाटः स ध्यानच एव च ॥ ८१ ।। शानादरणादिस्योगात्कन्निवति संहत व्यानवस्य भेदोऽयं प्रोक्तेऽन्यः पूर्वसूरे
भिः॥ ८२ ।। बन्धोऽथ द्विविधः प्रोक्तो भाषद्रव्यानुसारतः । बुर्माचः कर्म यध्नाति भाववन्धोहि सोऽगदि ।। ८३ ॥ कर्मणामात्मन स्वैव प्रदेशानां परस्पर । एकल मिलन' यश्च द्रव्यबंधो मतो हि सः॥ ८४ | बंधश्चतुर्विधो भूयः प्रकृतिरनुभागकः। स्थितिः प्रदेश ला इत्युक्तो बन्धो हि दुस्त्यजो नृणां ॥ ८५ ॥ प्रवेशः प्रकृतियों गाइनुभागः स्थितिश्च धे । कषायेभ्योधि जायंते निर्णीत' केवलाधिपः॥
कार्य भावोंसे किया जाता है वह दृढ होता ही है यहां पर मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योगोंके द्वारा कर्मों का आना होता है इसलिये मिथ्यात्व आदि भावोंका ही नाम भावासव है तथा मिथ्यात्व अविरति योग कषाय और प्रमादके द्वारा जो द्रव्य कर्म आते हैं उन द्रव्य कमों का नाम द्रव्यासूच है । द्रव्यकर्म जिस समय आता है वह ज्ञानावरण आदि समूह स्वरूप आता है इसलिये ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तराय ये आठ द्रव्य कर्मके भेद
हैं । ये आठ प्रकार के द्रव्य कर्म ही द्रव्यासूबके आठ भेद माने हैं ।। ८०-८१ ॥ द्रव्य बंध और I भाव बंधके भेदसे बंध भी दो प्रकारका माना है । जिन मिथ्यात्व अविरति मोदि दुर्भावोंके द्वारा
कर्म बंधते हैं उन दुर्भावोंका नाम तो भावबंध है एवं कर्म और आत्माके प्रदेशीका जो एक क्षेत्र वगाहरूप आपसमें मिलना है वह द्रव्य वंध कहा गया है ! वह बंध तत्त्व चार प्रकारका माना है |
प्रकृतिबंध अनुभागबंध स्थितिबंध और प्रदेशबंध । इस बंधका छूटनी बड़ी कठिनतासे होता है । व इन चारो प्रकारके कंधोंमें प्रदेशबंध और प्रकृतिबंध तो योगोंके द्वारा होते हैं और अनुभाग एवं | स्थितिबंध कषायोंके द्वारा होते हैं ऐसा भगवान जिनेंद्रने कहा है ॥८२-८५ ॥ द्रव्य संवर और भावसंवरके भेदसे संवर तत्त्व भी दो प्रकारका माना है। ब्रत गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा चारित्र
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