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.r७१॥चतिष जीवानां धोऽयं साधकम्मतः । पुतलानां य मत्याना बारिखद्गणनाथ: ।। ७२ ॥ जोवाना पुद्गलानां च स्थान' दातु हि शक्तिमान् । अधर्मः पथिकानां पा छाया नैसर्गतो भृशं ।।७३ ॥ अवकाश विद्यते योग्य जीवादीनां विशेषतः । तल्लोकाकाश मास्यातमलोकस्तत्परो यतः ॥ ७॥नवजीर्षकरः कालो ध्यपहारस्तत: परः । एकरूपतया ख्यातो निश्चयो रत्नराशिवत् ॥ ७५॥ काल
स्य प्रदेशत्वादकायो मधते मतैः। जीवाजीवोऽथ धर्मश्चाध संख्यप्रदेशवान् ॥ ७६ ॥ आकाशप्रोच्यते पूर्व प्रदेशोऽनन्तबदुवं । A जहां तक धर्म द्रव्यका संबंध रहता है वहीं तक जीव और पुद्गलोंकी गति होती है आगे नहीं होतो Lal जिस प्रकार छाया पथिक जनोंको ठहरानेवाली होती हैं-धूपके तापसे संतप्त पथिक जिस समय S/ किसी वृक्षको शीतलछाया देख लेता है तो कुछ विश्रामकी अभिलाषासे उसके नीचं ठहर जाता RA
है। यदि वृक्षकी छाया न हो तो वह ठहर नहीं सकता उसीप्रकार जीव पुद्गलोंकी स्थितिमे कारण 25 अधर्म द्रव्य है । अधर्म द्रव्यकी सहायतासे ही जीव और पुद्गलोंकी स्थिति होती है ॥ ७१–७२॥
आकाशके लोकाकाश और अलोकाकाशके भेदसे दो भेद माने हैं जीव आदि द्रव्योंको जो विशेष ME रूपसे अवकाश दान दे वह लोकाकाश है और उसके आगे अलोकाकाश है । व्यवहार और
निश्चयके भेदसे काल द्रव्यके भो दो भेद माने हैं । द्रव्योंकी जो नई पुरानी आदि पर्यायोंके कराIS नेमें कारण है वह व्यवहार काल है और जो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक IM एक रूपसे स्थित है । रत्नोंको राशिके समान जिसके अणू जुदे जुदे हैं वह निश्चय काल द्रव्य है |
॥७३-७४ ॥ जिसके प्रदेश आपसमें मिल सकें वह काय कहलाता है काल द्रव्यके प्रदेशोंका -
मिलना नहीं होता और न उनमें मिलनेकी शक्ति ही है इसलिये काल द्रव्यको अकाय माना है। Fel जीव काल धर्म और अधर्म द्रव्य इनमें प्रत्येकके असंख्याते असंख्याते प्रदेश हैं। आकाशके प्रदेश 21
अनंत हैं तथा पुद्गलके संख्यात भी प्रदेश हैं असंख्यात भी प्रदेश हैं और अनन्त भी प्रदेश हैं ।
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