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॥ ६५ ॥ यथारुचिरतः
प्रमादतः। नैवारय सद्दल' वात्र निर्जगदिनिर कुशः || १६ || तुष्टीभूयमिती नागराज्ञस्तेषां क्योरमः । सुनोच चरान्नान् विद्युद्द 'ट्रमबन्धयत् ॥ ६७ ॥ पुत्रख भ्र तृदायादसंयुतं तं पयोधरे । संक्षिप्ततोऽद्रस्तावदन्य कथांश ६८ ॥ आदि-यामः सुतः प्राहेति साविकं वचः । बनैनाकारि यो दोषः क्षम्यतामा ग्रहान्मम ॥ ६६ ॥ त्वादृशां महतां नागर क्षुद्र पापा न शस्थत | गामानु दन्त न क्रूरः कृतेर्ध्य चापि केसरी ॥ १०० ॥ पुरा पुरुजिनेंद्रस्य काले विद्याधरेशिनां । विद्या कार्य करनेवालोंको वलवान नहीं माना जाता ॥ ६५-६६ ॥ विद्याधरोंके इसप्रकार शांतिमय दीन वचन सुन नागेन्द्र कुमार क्रोधरहित संतुष्ट हो गया। जितने भी निरपराध आर्य विद्याधर थे नागेन्द्र कुमारने उन्हें क्षमा कर छोड़ दिया। अपराधी विद्युष्ट्को कसकर बांध लिया एवं पुत्र स्त्री भाई और कुटम्बियों के साथ उसे समुद्र में डालनेके लिये उद्यत हो गया । नागेन्द्रकुमार जिस समय यह कार्य करनेकी चष्टा कर रहा था उस समय आदित्याभ नामक नागकुमारको दया आगई और वह शांत वचनोंमें इसप्रकार कहने लगा
यद्यपि इस विद दुइंष्ट्र विद्याधरने आपको घोर अपराध किया है तथापि मेरे आग्रह से तुम्हें इसे क्षमा कर देना चाहिये । प्रिय नागेंद्र ! आप एक महान पुरुष हो आप सरीखे महान पुरुषों को क्षुद्र पुरुषों पर कोप करना शोभा नहीं पाता यह तुम अच्छीतरह जानते हो कि क्षुद्र श्रृंगाल क्रूर के सरीसे कितनी भी ईर्षा क्यों न करे तो भी बह कर सिंह उसे कभी नहीं मारता । भाई ! भगवान ऋषभ देव के समय में तुम्हारे वंशजोंने विद्याधर राजाओं को अनेक प्रकारकी विद्यायें दीं थीं उसी समय विद्याधर वंश का संसार में उदय हुआ था । प्रिय नागेंद्र ! यह संसार प्रसिद्ध बात है कि जिस मनुष्य विषवृक्षका भी अच्छी तरह दूध से सींचकर बढाया है वह चाहें वज्र मूड भी हो तो भी उसे स्वयं नहीं छेद सकता तुम तो एक महान और विद्वान पुरुष हो तुम अपने वंशजों द्वारा नि
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