________________
सोमः
पुण्यं पापं दुर्भाविचेतसाँ
। सातासुखादिसन्नाम सगोत्राच मोक्षो जनाधीशः पुण्यतः | १३ | पापासद्विपरोतानि श्वभूतिर्यग्गतिः पुनः । द्रव्यतत्रत्वपदार्थाश्च भाषितास्तेन मागध ! ॥ ६४ ॥ अथ श्रीजिननाधोऽसौ मोक्षमोर्गमचोकयत् । ध्यानसाध्य' विना तेन मुक्त्यवाप्तिर्न जायते ॥ ६५ ॥ दर्शनशानचारित्र मन्येऽहं मोक्षकारणं । तन्मयो ही मायावसीदति ॥ ३६ ॥ ध्यानेन विना योगी न समर्थः कर्मनाशने । अष्ट: कुञ्जराणां वा व्यसने केसरी यथा ॥
ऐसा केवल ज्ञानी भगवान जिनेन्द्रका सिद्धांत है ॥ ८६ - ६१ ॥ जिन महानुभावों के परिणाम पवित्र रहते हैं उनके तो उत्तम पुण्यकी प्राप्ति होती है और जिनके निंदित परिणाम रहते हैं उनके पापों की उत्पत्ति होती है । साता रूप सुख उत्तम नाम उत्तम गोत्र और उत्तम आयु इनकी पुण्य से प्राप्ति होती है और पाप आसाता रूप दुःख निन्दित नाम गोत्र और आयुकी प्राप्ति होती है एवं पापके उदयसे नरकगतिमें जाना पड़ता है इस प्रकार भगवान विमलनाथने द्रव्य near पदार्थों का विस्तारसे उपदेश दिया ॥ ३२-६३ ॥
इसके बाद भगवान विमलनाथने मोक्ष मार्गका वर्णन किया जिसकी कि सिद्धि ध्यानसे है और उस ध्यानके विना मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं हो सकती । भगवान विमलनाथने कहा सम्यग्द र्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चोरित्र ये तीनों मिलकर मोक्षके कारण हैं जो आत्मा निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन आदि स्वरूप हो जाता है वह ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित हो जाता है जिस प्रकार डाढोंसे रहित सिंह हाथियोंके विध्वंस करनेकी समर्थ्य नहीं रखता उसी प्रकार ध्यानके विना योगी भी कर्मो के नाकी सामर्थ्य नहीं रखता। कर्मों का नाश ध्यानके द्वारा ही हो सकता है ||४| ॥ ६६ ॥ आर्तध्यान रौद्र ध्यान धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यानके भेदसे ध्यानके चार भेद माने हैं । इनमें आर्त और रौद्र ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं इसलिये ये छोड़ने योग्य है । धर्म्य और ये शुक्ल
३२
YAYAY