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मल ९५८
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रूपद्मिकेभाः । रवे रम्भा च दाक्षिण्यरूपलावण्यतोर्याधः ॥ २६ ॥ पीवरस्तनभारेण दग्नना कृशोदरी । स्थूलगौरनितम्बेन मन्थरा मृगलोचना ।। २७ ।। ( युग) : सुतौ रम्यौ कामाभौ कमलेक्षणौ ॥ २८ ॥ संज 'तामित्रः सर्वलक्षणांकित घिग्रहः । जयन्तारूपोऽपरः ख्यातः शुक्रो वांङमी च ताविव ॥ २६ ॥ प्रत्यहं यावचन्द्रबद्ध दितान्यौ यालत्वेऽभ्यस्तविद्यौ तौ बाहुनारोपती ततः ॥ ३० ॥ पुत्राभ्यां सहितो राजा येजयतोऽतिदुर्जयः । भुनकि स्माधिपत्यं प्रतापष्ण सरीखी जान पड़ती थी । एवं वह चतुरता रूप और लावण्यकी समुद्रखरूप थी । वह स्थूल स्तनोंके भारसे को कुछ को हुई थी, कृशोदरी थी । स्थूल और भारी नितम्बों के कारण धीरे २ चलने वाली थी एवं हरिणी के समान चंचल नेत्रोंसे शोभायमान थी । इन्द्र और इंद्राणीके समान इच्छा •नुसार सुख भोगनेवाले राजा वैजयन्त और रानी सर्वश्रीके दो पुत्र हुए जो कि अस्त्यन्त मनोहर थे कामदेव के समान सुन्दर थे। कमलके समान विशाल नेत्रोंके धारक थे । २५ - २८ ॥ प्रथम पुत्रका नाम संजयत था जो कि समस्त उत्तमोत्तम लक्षणोंसे युक्त शरीरका धारक था तथा दूसरा पुत्र जयंत था जो कि अपने गुणोंसे समस्त पृथ्वीतलपर प्रसिद्ध था । दोनों ही पुत्र विद्वत्ता में शुक्र और बृहस्पतिकी शोभा धारण करते थे। वे दोनों कुमार वाल चन्द्रमाके समान प्रतिदिन बढ़ते रहते थे । वाल अवस्थामें ही उन्होंने समस्त विद्याओं का अभ्यास कर लिया था एवं ये शस्त्र विद्यारूपी स्त्रीके पति थे - पूर्ण शस्त्र कलाके जानकार थे || २६ – ३०॥ प्रतापी दोनों पुत्रोंके साथ राजा वैजयंत दुर्जय शत्रुका अगम्य था एवं प्रतापी सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभाका धारक वह अपने राज्यका पूर्णरूप से भोग करता था ॥ ३९ ॥
वीतशोक नगर के समीप एक अशोक नामका विशाल उद्यान था जो कि भांति २ के वृक्षों से ज्याप्त था। अनेक देवोंके साथ जहां तहां विहार कर भगवान् विमलनाथ उस उद्यानमें आकर
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