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धरणत्वं कदापि न । अव बहुल विद्यते नतु ॥ ५१ ॥ अथासौ संजय ताख्यो योगींद्रो व्यवहरद्भुवि । तपस्यन् भूधरप्रस्थे मिसूर्य ब्रह्मसंजपन् ॥ ५२ ॥ त्रिधामङ्गादिनिर्मुको निश्चलो भेरुवत्परः । निःकियो ध्यानसंरुद्धचेताः परमतत्त्ववित् ॥ ५३ ॥ तखे
ते नूनं संसृतिः कियनी द्यते । क्षणिकध्यानलेशेन वज्रवत्कर्म भूधराः ॥ ५४ ॥ अन्येद्युः पर्वता रूढो ध्यान | स्तमितलोचनः । ब्रह्मण्या स्मानमायोज्य स्थितो यावन्महीं मुनि १५५ | मनोहरपुराम्यर्णे भीमारण्यांतरे यतिं । प्रतिमायोगसंलीनं ध्यायतं परमं महः ॥ ५६ ॥ विष्द्रः खगो दृष्ट्वा तं मार्ग वेगतो व्रजन् । पूर्ववैरानुबन्धाजातिस्मरणथानभूत् ॥ ५७ ॥ महाक्रोधेन दुष्टात्मा ताडयामास प्रस्तः । मुष्टि। मर्लकुटैर्धार्तस्व' मुनिं ब्रह्मचिंतनं ॥ ५८ ॥ समुद्धत्य मुनिं वैरान्नीत्याकाशे जिघांसया । यायो विद्याबलेनाशु खगस्तं
मुनिराज जयन्तकं धरणेंद्र हो जानेके बाद वे योगिराज संजयंत पृथ्वीमण्डल पर विहार करने लगे। सूर्य की ओर मुखकर परमात्मा के स्वरूपका ध्यान करते हुए पर्वतों की शिलाओंपर स्थिर हो कर घोर तप तपने लगे ।। ५१ – ५२ ॥ वे मुनिराज संजयंत चेतन अचेतन एवं चेतनाचेतन तीनों प्रकारकी परिग्रहसे रहित थे जिस समय वे ध्यानारूढ निश्चल होते थे उस समय वे निश्चल मेरु पर्वतके समान जान पड़ते थे । समस्त प्रकारकी वाह्य क्रियायोंसे रहित थे। वे सदा परमात्माका ध्यान करते रहते थे इसलिये उनके चित्तकी वृत्ति रुकी रहती थी और वे पदार्थों के वास्तविक स्वरूपके पूर्ण जानकार थे । यह निश्चय है कि जहांपर वस्तुके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान हो जाता है। वहां पर विशेष संसार में नहीं रुलना पड़ता किंतु जिस प्रकार वज्र से विशाल भी पर्वत चूर चूर हो जाता है उसीप्रकार शुक्ल ध्यानके द्वारा बलवान भो कर्मरूपी पर्वत खण्ड २ हो जाता है ॥५.३-५४ ॥
एक दिनकी बात है कि वे मुनिराज संजयंत पर्व तके अग्र भागपर विराजमान थे। ध्यानकी कृपासे उनके दोनों नेत्र निश्चल थे, चित्त में परमात्माका चितवन कर रहे थे । मनोहर पुरक उद्यान में एक भी मारण्य नामका वन था उसमें प्रतिमा योगसे वे ध्यानारूढ थे उसी समय एक विद्यु