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तपोमु
संयंत तयाख्यातावस्य केवलं ॥ ४४॥ यन्दितु भूरितेजक तत्वज्ञी शांतिभूषणों समायाता स्तुवंती तौधिरी परौ । ४५ ॥ घद्रस्तदायासीदुत्सवार्थ जिनस्य । द्विसप्त कोटिम व रावृतः कन्प्रतावधि । ४६ ।। जय ताख्यो मुनस्तत्र दृष्ट्वा रूपं धरापतेः । विह्वलांगो वभूवाशु भोगोदयविधेर्वशात् ॥ ४७ ॥ तपो घोरतरं तप्त साशङ्क दरिकादिपु : सोऽकार्योन्नितरां प्रान्ते निदानमिति शल्यवत् ॥ ४८ ॥ फलं व सपसो मेऽल चिर' तप्तस्य सादात् । भूयान्मे नागनाथत्वमावश्यक महोदयं ॥ ४६ ॥ मृवा निदानतो जो घरणेंद्रः शुभाशयः । महद्धिं फणिमशेभार किरीटः पुष्पदन्तमः ॥ ५० ॥ तपसोग्रेण दुःप्रापये यंतऔर जयंत नामके मुनियोंने भी अपने पिताको केवलज्ञान हुआ सुना इसलिये वे भी तत्काल मुनिराज वैजयन्तकी वन्दनाके लिये आ गये। चौदह करोड़ देवोसे व्याप्त अतिशय मनोहर श रीरका धारक धरणेंद्र भी जिनराज वैजयंतके केवलज्ञान उत्सव में शामिल हुआ था। धरणेंद्र के मनो हर रूपको देखकर मुनिराज जयंत एकदम निर्बुद्धि हो गये। मोहनीय कर्मके तीव्र उदयसे उनकी स्त्री आदिमें लालसा फटकने लगी इसलिये तीव्र तपके तपने के बाद यह उन्होंने निदान नामकी शल्य बांध ली
'चिरकाल पर्यंत तपे गये तपका यदि आदरपूर्वक मुझे फल प्राप्त हो तो मैं महान अभ्युदय का स्वामी धरकेंद्र' बस आयुके अन्त में मरकर वे महान ऋद्धिके खामी और चित्तके शुभ धारक धरणेंद्र हुए। उनका मुकुट नागके भारसे शोभायमान था और सूर्य चन्द्रमाके समान उनको अद्वितीय प्रभा थी । ४४ -- ५० ॥ ग्रन्थकार निदान शल्यकी निंदा करते हुए कहते हैं कि जब उग्र तपके प्रभाव से मोक्ष तक प्राप्त हो जाती है तब उससे धरणेंद्र पदका मिलना कठिन नहीं क्योंकि यह संसार प्रसिद्ध बात है कि बहुमूल्यको वस्तुसे थोड़े मूल्यकी वस्तुका मिलना कठिन नहीं है । उमा तपना बहुमूल्य वस्तु है और धरणेंद्र पदकी प्राप्ति थोड़ मूल्यको वस्तु है । इसलिये मुनिराज जयन्तका उस प्रकारका निदान एक निंदित निदान था ।
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