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करप्रमः ॥३१॥ अर्धकदा समायातस्तत्पुरस्य बने जिनः संशोकाख्ये द्रमाकीर्णे स्वयभूनिर्जरात: ॥ ३२ ॥ बन्दितु जम्मतुस्तं तो
सोद सोदराविव । महाभूत्या गजारूढ़ी छत्रछन्नार्कदोधिती !॥ ३३ ॥ दृष्ट्वा स्वयंभुवं दूगदुत्तीर्य गजराजतः । गत्वा भवत्या परी. मिल त्याशु नत्वा स्तुत्वा बसस्थतुः॥ ३४॥ जिनोक्त' दशधा धर्म संसारानियतां च तौ। धृत्वा वैराग्यमापन्नी कौशलं हि सतामिति ॥ I] ३५ ।। बैजयतोऽवनोनायो दृष्ट्वा पुनविरक्ततां । ततर्क मनसि स्वीये मोहशैथिल्यतो महान् ॥ ३६॥ युवानोऽपि तपस्यानि ते धन्या
विराज गये । कुमार संजयत और जयंतको भगवान जिनेद्रके आनेका समाचार मिल गया। शीघ्र ही लक्ष्मीके समुद्र स्वरूप वे दोनों भाई हाथियोंपर सवार हो गये और बड़े टाट वाटके साथ
भगवान जिनेंद्रकी वंदनाके लिये चल दिये। दोनों कुमारोंके ऊपर छत्र ढुलते जाते थे जो कि तो अपनी उग्र दीप्तिसे सूर्यकी दीप्तिको दवानेवाले थे ॥ ३२-३३ ॥ भगवान स्वयम्भ को दूरसे ही 5 देखकर वे दोनों राजकुमार हाथीसे उतर गये। पासमें जाकर भक्तिर्वक तीन प्रदक्षिणा दीं।। C नमस्कार किया। मनोहर गद्य पद्योमें स्तुति की और अपने योग्य स्थानपर जाकर बैठ गये ॥ ३४ ॥ भगवान जिनेंद्र उस समय उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोंका स्वरूप निरूपण कर रहे थे और संसारकी अनित्यताका उपदेश दे रहे थे जिसे सुनकर सञ्जयन्त और जयंत दोनो ही संसारसे विरक्त हो । गये ठोक ही है सज्जनोंकी कुशलता यही कहलाती है। राजा वैजयंतने जब अपने पुत्रोंको संसारसे विरक्त देखा तो उसका भी मोह संसारमें शिथिल पड़ गया और वह अपने मनमें इस प्रकार ज/ विचार करने लगा
युवा होकर भी जो विषय भोगोंसे विरक्त हो तप आचरण करते हैं संसारमें वे ही धन्य है । मुझ सरीखे पापियोंके लिये धिक्कार है जो कि अपनी वृद्ध अवस्थाको युवावस्था मान रहे हैं। अर्थात् यह अवस्था धर्म साधनकी है उसे भोग विलासोंमें बिता रहे हैं। इन्द्रके पुत्रके समान और का- 11