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अपने श्जयः
जज्ञेऽस्थ्युत्करहारभृत् ॥ ३५८ ॥ क्रोधारुणमुखो भीजंतूनां कृपयातिगः । दुर्गधा हावने स्थित्वा भक्षयामास मानवान् ।। ३५६ || तद्भिया व्याकुला लोका नावृत्ति शेरतं न च । नो निःस्सर ति कुत्रापि मृत्युभी: केन सह्यते ॥ २६० ॥ यदा सर्वजनांतोऽभूखदा राश ि तर्कसं । प्रत्यहं दीयते च को मानो मै पलादिने ॥ ३६१ ॥ यदा नो भक्षयेल्लोकान् तिष्ठ दुभूतवने तदा । एवं संचित्य दून' स प्रजिघायाशु तं प्रति ॥ ३६२ ॥ दृष्ट्वा दूत' समुत्तस्थौ चण्डोऽरुणनिरीक्षणः । वचोभिस्ताडयन्नत्त तदाहेति चरोमिया गया जो कि तीन डाढोंका धारक था । हड्डियोंका हार धारण करता था । सदा उसका मुख क्रोध से लाल रहता था । गोत्रोंको यमील करनेवाला था और निर्दयी था । वह दुष्ट राक्षस चम्पापुरीके बाह्य बनमें रहने लगा और नगरके समस्त लोगोंको खाने लगा । राक्षसकी यह निर्दयता परिपूर्ण चेष्टा देखकर नगर निवासी लोगों को बड़ी आकुलता हो गई। राचसके भय से न वे खाही सके न पीही सके और न कहीं वाहिर जाही सके। ठीक ही मृत्युका भय सहा नहीं जाता । मृत्यु का नाम सुनते ही हृदय थर थरा निकलता हैं ।। ३५६- ३६० ॥ राक्षसके द्वारा जब नगर निवासियों का क्षय होने लगा तब राजाको बड़ी चिन्ता हुई और अनेक तर्कवितर्कों के साथ उसने यह निश्चित कर दिया कि यदि वह राक्षस यह बात स्वीकार कर ले कि अपनी इच्छानुसार वह किसी भी मनुष्यको न मारे और नगर में आकर श्मसान भूमिमें ही पड़ा रहे तो हम उसको प्रति दिन एकर मनुष्य भेज सकते हैं। वस ऐसा विचार कर राजाने शीघ्रही दूत बुलाया और उसे राचसके पास भेज दिया ॥३६१-३६२॥ दूतको अपने पास आता देख राक्षस मारे क्रोधके भवल गया उसके दोनों नेत्र लाल हो गये । अनेक प्रकारके दुर्वाक्य कहने लगा और उठकर दूतको खानेके लिये तयार हो गया। राक्षसकी यह क्रूर चेष्टा देखकर दूतने कहा
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