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मधुनारिवितानाहिधितानगर न हि ॥ ४२५ ॥ पृष्ठतो भ्रामरी विद्या मुक्ता तन्नाशाहेतवे । तयागात्य समादाय क्षिप्तोऽखधौ लांगली महान् ॥ २६ ॥ तन्नपांशुलोजापमक्षावितयात्मक । सस्मार घेमतो गाढमन्खराजमनादिकं ॥ ४२७ ॥ तोथराशिस्थदेवरूप मणिचूलस्य कापतात् । विष्ट(स्य समेत्याशु तव्यबा दधार तथा अयित्वा मणिं दवा तरे मुक्तो गुणात्मकः । तया पुण्य घशारात्र यावदास्ते खग स्मरन् ।। ४२६ ।। तावत्पश्यन समायातः खेवरः खेचरन् द्रुतं । विमाने स्थापयित्या त जगामाशु यथारुचि बलभद्रके नाशके लिये पोछसे भ्रामरी नामकी विद्या छुटकादी। उसने वलभद्रको जिकड़कर || पकड़ लिया और विशाल समुद्र के अंदर धर फेंका ॥ ४२१----४२६ ॥ बलभद्र धर्म जिस समय समुद्रमें पड़ गये वहांपर वे निस्सहाय हो गये एवं अनादि सिद्ध और दो अक्षरस्वरूप 'अहं' इस मंत्र राजको वे जपने लगे। उस समुद्रका स्वामी एक मणिचल नामका देव था।मत्रके प्रभावसे उसका आसन कपा और उसकी अंवा नामकी देवीने ऊपर निकाल लिया। महापुरुष जान
प्रेमपूर्वक बलभद्रकी पूजा को । भैंटमे मणि प्रदान की । एवं अनेक गुणों के भंडार स्वरूप उसे RE) तटपर आकर छोड दिया ॥ ४२७–४२६ ॥ वलभद्र धर्म तटपर आकर देखते क्या है कि जिसके
विमानमें चढकर आये थे वह विद्याधर जहां तहां आकाशमें घूमता हुआ वहां पर आगया है उसे देख वलभद्रको बड़ा हर्ष हुआ विद्याधरने उन्हे विमानमें चढ़ा लिया और जहां उन्हें पहुंचना था , वहां वे दोनोंके दोनों चल दिये ॥ ४३० ॥ मधुद्वारा छुटकाई हुई भ्रामरी विद्याने फिर भी वलभद्र ! का पीछा न छोड़ो। उसने भेरुण्ड पक्षीका रूप धारण कर लिया और वल्लभद्रको निगल गई। वलशाली बलभद्रने नख और दातोंसे उसे विदार डाला । मुष्टियोंके तीव्र घातोंसे उसका पेट फाड़- 5 कर बाहर निकल गये और पर्वतके ऊपर गिरने लगे, इतनेही में लाघवी नामकी महा विद्यासे उस विद्याधरने वलभद्रको डाट लिया। विमानमें सवार कर लिया और दोनोंके दोनो गङ्गा सरोवर पर
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एलबमानहर
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