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विमल
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पितं स्थायी भोक्ता भवस्थितः ॥ ३४ ॥ कालत्रये सर्वस्यस्य प्राणाश्चत्वार एव च । सत्तासौख्य महाबोधचेतना गदिता इति ॥ ३५ || व्यवहार तथा ख्याता दश प्रामा जिनागमे । मनोवाक्कायश्वासायुः पंच खार्ना च पच हि ॥ ३६ ॥ उपयोगो द्विधा ख्यातो दर्शनज्ञानभेदतः । चक्षुरक्ष, रवधिदर्शन केवलं मतं ॥ ३७ ॥ ज्ञानं चाष्टविध प्रोक' मतिः श्रोतावत्रीतः तद्ज्ञानवयं प्रोक्त मन:पर्यय चले ॥ ३८ ॥ प्रमाणाभ्यां नितिं ज्ञामा सामान्यापेक्षया भूमं लक्षण देहिनां ॥ १६ ॥ नित्यं शुद्ध' समाख्यातं ज्ञानदर्शनयोर्द्वयं । ज्ञानं राज्ञायते येन त्रलोक्यं सचराचर ॥ ४० ॥ दृश्यते येन सूक्ष्मादि शोक्यार्था यथास्थिताः । भूताश्च वर्त
भाविनो दर्शन हि तत् ॥ ४१ ॥ वर्णाः पचति रक्तश्च कृष्णश्वती पिशङ्गकः । हरितो देहिनः प्रोक्ताः सामात्यान्तै निश्वव्यवहार नयसे अपने कर्मोंका कर्ता है। अमूर्तिक है। जब तक इसका शरीर के साथ सम्बन्ध है तब तक संसारमें रहनेवाला है ॥ ३४ ॥ तोनों काल इसके चार प्राण सदा देदीप्यमान रहते हैं और वे चार प्राण सत्ता सौख्य ज्ञान और चेतना ये हैं || ३५ ॥ व्यवहार नयको अपेक्षा जीवके मन वचन काय श्वासोच्छ्वास आयु और स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियां ये दश प्राण हैं ॥ ३६ ॥ दर्शन और ज्ञान के भेद से उपयोग दोप्रकारका माना है। चतुदर्शन अचक्षु दर्शन अवधि दर्शन और केवल दर्शन के भेद से दर्शन चार प्रकारका है । मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान कुमति कुश्रुत और
अवधि, मन:पर्यय और केवल इस प्रकार ज्ञान आठ प्रकारका माना है। ये जो मतिज्ञान आदि आठ भेद माने हैं वे प्रमाणके भेद प्रत्यक्ष और परोक्षसे युक्त हैं अर्थात् अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान तो प्रत्यक्ष हैं और बाकीके परोच हैं। जीवका यह उपयोग ही सामान्य लक्षण है ॥ ३७-३६ ॥ ज्ञान और दर्शन यह दोनों प्रकारका उपयोग नित्य है कभी भी इसका विनाश नहीं होता और शुद्ध है। जिसके द्वारा तीन लोक सम्बन्धी चराचर पदार्थ जाने जायें वह ज्ञान कहा जाता है । तथा तीन लोक सम्बन्धी और भूत भविष्यत वर्तमान तीन काल संबंधी पदार्थ यथावस्थित रूपसे जिसके द्वारा दीखें बह दर्शन नामका उपयोग है ॥ ४०-४१ ॥