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विमल २३८
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महाभूत्या जि पूज्य स्तुत्या गंधादिभिः पुनः । नयेादशमे कोष्ठ तस्यतुः साक्षर तकौ ॥ २६ ॥ एश्योरा शिध्वनिर्दिव्यशयोवाच जिनाधिपः । महानदिशत्तस्याधरवंशे न दृश्यते ।। ३० ।। गृहस्थयमिनां धमें प्रोक्वा पूर्व सतः परं । तद्रव्यपदार्थादिधर्म गदित सर्वकाल पुरा वान्! ॥ ३१ ॥ अनादिनिधनो धो विद्यते संगुनी भ्रमात् । कर्मयंलकृतः फेन नास्ति रलत्रयात्मकः ॥ ३२ ॥ प्राणी जति भेाः । कदाचित्स्तन्न स जीवों गद्यते जिनैः ॥ ३३ ॥ दिवषभेदोपयोगात्मा कर्ता व्यवहारतः खलु । अमृ सेनाके भारसे विशाल समुद्रको तरनेको सामर्थ्य रखते थे। वैरियोंका ध्वंस करनेवाले थे एवं समस्त सामन्तों से शोभायमान थे || २६ -- २८ ॥ समवसरण में प्रवेशकर मेरु और मन्दिरने बड़े ठाट वाटसे भगवान जिनेन्द्रकी जल चन्दन आदि अष्ट द्रव्योंसे पूजा की। मनोहर पद्योंमें स्तुति की एवं भक्ति-पूर्वक नमस्कार कर बड़े आदरसे मनुष्य कोटमें जाकर बैठ गये ॥ २६ ॥ समुद्र के समान गम्भीर ध्वनिके धारक भगवान जिनेन्द्र अपनी दिव्य ध्वनि से धर्मका स्वरूप वर्णन करने लगे । बोलते समय अन्य मनुष्यों के तो होठ चलते हैं परन्तु भगवान जिनेन्द्रके अन्दर यह महान् अतिशय था कि उनके होठ किसी प्रकार हिलते डुलते न थे ॥ ३० ॥ भगवान जिनेन्द्र ने सबसे पहिले हस्थ और सुनियोंके धर्मका वर्णन किया पीछे सात तत्व पांच द्रव्य और नव पदार्थों का स्वरूप निरूपण किया ॥ ३१ ॥ वह इसप्रकार हैं
इस जीवकी न तो आदि है और न अन्त है । यह अनादि निधन है और कर्मरूपी के में पड़कर यह बरावर संसार में घूमता रहता है। यह किसीका बनाया हुआ नहीं है और सम्यग्दशेन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रयका स्वामी हैं ॥ ३२ ॥ यह जीव अपने जीवत्व रूपसे सदा काल जीता है कभी भी इसका प्रलय नहीं होता इसलिये जो अपने जीवत्वरूपसे सदा फाल जीवे और जिसका कभी भी प्रलय न हो वह भगवान जिनेन्द्रने जीव द्रव्य कहा है ॥ ३३॥ यह जीव आठ प्रकारका ज्ञान और चार प्रकारका दर्शन इसप्रकार वारह प्रकारके उपयोग स्वरूप हैं ।