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नं रतलोचन 1 मस्तकेऽस्थिकिरीटं च भूतारण्ये स्थितो निशि ।। ४५१ रुण्डमाला समादाय पदिवशवाहुखेचरी मानसीमाशु ध्या नेन ससाधासौखगाधिपः॥ ४५२।। साधयित्या महाविद्यां शैलोन्नतपयोधरी । दुःसाध्यामागतस्तत्र किं न स्यात्मुक्तोदयात् ।।४५३॥ तत्त्रयो ध्वंसिता तेन विद्यया रविणा यथा। प्रभया तामसं नैश्य हरिणा सिधुरोत्करः ॥ ४५४|| स्पष्ट सैन्यं सदा दृष्ट्वा स्वय'भूः शेर विक्रमः । जघान घनघालेश्ध माधवीय बल बलात् ॥ ४५५ ।। वुर्जय ते समालोक्य मधुः क्रोधाग्निदीपितः । तस्याभिमुखमासाद्य
का धारक सपं डाल लिया । मस्तक पर हड्डियोंका मुकुट बांध लिया और रात्रिके समय उस पर्व2 तके भतारण्य नामक वनमें स्थिर होकर बैठ गया। विद्याधरोंके स्वामी राजा महाच लने हाथ में वरुण्डोंकी माला लेकर छत्तीस भुजाओंकी धारक मानसी नामकी विद्याको साधा ॥ ४५०–४५३ ॥
जिसके स्तन पर्वतके समान विशाल हैं और जिसका साधना हर एकके लिये दुःसाध्य है ऐसी उस FEE महा विद्याको विद्याधर महा चलने शीघ्र ही साध लिया। ठीक ही है पुण्यके वलसे क्या बात दुर्लभ
रह जाती है ॥ ४५ ॥ उस महा विद्याको सिद्धकर विद्याधर महाच ल शीघ्र ही लौट आया जिस प्रकार सूर्यको प्रभासे रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है। केहरी हाथियोंके झुण्डके झण्डको । अस्त व्यस्त कर डालता है उसी प्रकार उस विद्याके द्वारा विद्याधर महाचुलने शीघ ही राजा मधुकी तीनों विद्याओंको नष्ट कर डाला। शेष नागके समान पराक्रमी नारायण स्वयम्भ ने जिस समय अपनी सेनाको मूळ रहित देखा तो उसे बड़ा आनन्द हुआ एवं अनेक प्रकारके तीन घातों।
से उसने राजा मधुके सारे सैन्यको अस्त व्यस्त कर डाला ॥४५४-४५५॥ स्वयम्भू की यह लोकोसत्तर वीरता जिस समय राजा मधुन देखी तो मारे क्रोधसे उसका हृदय प्रज्वलित हो गया।
एवं अनेक प्रकारके शस्त्रोस सुसज्जित हो वह शीघ्र ही नारायण स्वयम्भ के सामने आकर डट el गया। नारायण स्वयम्भ के ऊपर उसने अग्नि वाण जलवाण पर्वत वाण और नाग वाण आदि