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नानाशास्त्रविशारदः || ४५६ ॥ वहितोयागनागादिवाणान् चिप तं प्रति । हरिस्तोयेन बालेन वज्रवीद्भ्यामशीशमत् ॥ ४५७ ॥ ( क ) विलक्षोऽभून्मधूराजा दृष्ट्वा वाणप्रखण्डनां । विघर्त्याशु तदा चक्र मुमोच मगधाधिप ! || ४५७ ॥ ( ख ) गत्वा कादो समेत्याशु परी स्य दक्षिणे भुजे । स्थितं स्वयं भुवो नूतं पुण्यात्किं न समाप्यते ॥ ४५८ ॥ चक्रे गते जगर्जाथ मधुः परुपया गिरा । मेरोः कोः ब्रख्य 'वारुफोटो जग गघनस्य वा ॥ ४५६ ॥ स्वयंभूः क्षत्रकार रे चेदास्ते शक्तिरुद्धता | मुंच शार परिभ्रम्य त्वरणाकर समां । बहुतसे वाण छोड़ े परन्तु नारायण खयम्भ भी कम न था । उसने अग्निवासको जल वाणसे नष्ट किया। जल वाणको पवन वाणसे हटाया। पर्वत वारणको बज्रवारासे छेदा एवं नाग वाणका नाश गरुड वाणसे किया । नारायण स्वयंभूका यह विचित्र रण कौशल देख एवं अपने बाणोंको छिन्न | भिन्न देख महा अभिमानी राजा मधु लज्जित हो गया और तो उससे कुछ न बन सका क्रोधसे अन्धा हो शीघ्र ही उसने नारायण स्वयंभ के ऊपर चक्र चला दिया। राजा मधु द्वारा छोड़ा हुआ वह चक्र पहिले तो आकाशमें गया पीछे नारायण स्वयम्भ के पास आकर उसकी तीन प्रदक्षिणा दो और दाहिने हाथ पर आकर बिराज गया ठीक हो है पुण्यके वलसे ऐसी कौनसी दुर्लभ चीजें हैं जिनकी प्राप्ति जीवों को नहीं हो जाती ।। ४५६ – ४५८ ॥ चक्र जाकर जब स्वयंभुके दाहिने हाथ
जा धरा तो प्रतिनारायण राजा मधुको नितान्त दुःख हुआ एवं वह इस प्रकार अत्यन्त कठिन वाणी बोलने लगा। राजा मधु की उस समय की ध्वनि इतने जोरसे थी कि लोगोंको यह मालूम | पड़ा था कि यह मेरु पर्वत के गिरानेका वा पृथ्वीके फटने का वी आकाशकी गर्जनाका शब्द है अथवा प्रलयकालमें समस्त जगतको भङ्ग करनेवाले मेघकी गर्जना है ॥ ४५६ ॥
रे अधम क्षत्री स्वयम्भ ू ! चकको पाकर शांत क्यों खडा हैं ? यदि तेरे अन्दर अदभुत शक्ति है तो तू चक्रको भ्रमाकर मेरी ओर छोड़। तू निश्चय समझ यह चक नियमसे तेरे प्राणोंका नाशक होगा। उत्तरमें स्वयम्भू ने कहा
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