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यं महाशल मेंरुसंस्थोऽनुजेष्यति ॥ ४१८॥ आत्मीय संगर' सर्व पीतं पास लमें रितं । ध्वंसितवानु वाणेन प्रसह्यानेन विद्विषः ॥४४१६॥ व्याधिः शत्रु शत्र हंतव्यो विषवल्लीच वेगतः । अतो हि महोपाय येनादिनियते शमं ॥ ४२० ॥ लांगलीत्यवदद्वंत श्रूयतां रणराजि हत् । विद्याधराचलादर्द्धाक् वर्ततेऽलकपत्तनं ॥ ४२१ ॥ तदधीशो महाचूलो मित्रमस्त्यावयोः परः । तमानयाधिवंभो शत्रु विद्या निराकृतौ ॥४२२|| अवीवदन्निशम्यादो बचो भ्रात्रा समोरित । गतव्य' ते त्वरा देव नास्त्यच विचारणा ॥ ४२३ ॥ सीरी विद्याधरणामा व्योमयानमधिष्ठितः । यात्यवरे यदा सायो विद्विषा किंकृत सदा ॥ ४२४|| नारदोक्त्या धा रक्ष्यंस्त्य वरादिकर्शदया ! हरण करनेवाली होती है इसलिये लोग उसे शीघ्र ही छेद डालते हैं उसी प्रकार व्याधि वा शत्रु | भी प्राणोंका नाशक होता है इसलिये जहां तक बने उसे बहुत जल्दी नष्ट कर डालना चाहिये । भाई ! तुम अब शीघ्र इस शत्रु के नाशका कोई पुष्ट उपाय बताओ जिससे यह शत्रु शीघ्र शांत हो जाय ॥ ४१७ - ४२० ॥ नारायण की यह बोडा जनक बात सुन कर उत्तर में वलभद्रने कहा -- रण विजयी भाई स्वयम्भ ! मैं तुम्हें एक उपाय बतलाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनोविद्याधर पर्वत विजयार्धकी उत्तर श्रेणी में एक अलक पत्तन नामका नगर है उसका स्वामी विद्याधर राजा महाचूल है जो कि हम दोनोंका परम मित्र है । वह मधुकी समस्त विद्याओंके नाश करनेमें समर्थ है इसलिये उसे किसी उपायसे यहां बुलाना चाहिये । बलभद्र धर्मके इस प्रकारके वचन सुनकर नारायण स्वयम्भ को कुछ सन्तोष हुआ और यह कहा भाई ! आप शीघ्र वहां पर चले जाइये अब इस विषयमें विशेष विचार करने के लिये समय नहीं है । वस वलभद्र धर्म किसी विद्याधरके साथ शीघ्र ही विमान पर सवार हो लिये । इस प्रकार वलभद्र धर्म तो आकाशमार्ग से विद्याधर लोककी ओर जा रहे थे इधर राजा नधुने क्या काम किया कि नारदसे यह सुनकर कि वलभद्र, विद्याधर लोकको जा रहा है शीघ्र ही विद्यावल से समस्त आकाश सुरक्षित कर दिया एवं विशाल शत्रु रूपी नागके लिये गरुड़ स्वरूप उस मधुने
पुरान
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