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ऽपि पफॉण फणिराडिव 1 त्यक्त्वा भुवं नमः श्रित्य भानुमांस्त' मधुर्द्विषं ॥ ३६६ ॥ केश: पोल्कद'वानि दानवर्षाणि सर्वशः गर्जन्ति चपला मेघाः सिंदूराभरणानि वा ॥ ३३७ ॥ हे पानीता विचित्रांगा आश्वीयाः क्षुण्णभूधराः । प्रचेलुश्चरणन्यासविषरी कृतसिंघवः || ३६८ ।। आयुधीया भटा भूमविक्रमा विक्रमक्रमाः । स्थपुटोन्नतभुवं चेलुः कृतांतहरयो नु वा ॥ ३६६ ॥ स राजाजिर मध्यस्थो मधुर्मधुरिवापरः । किन्नरोद्गीतकीर्तिश्च प्रळयांभोधिभीषणः ।। ५०० || अभिवेष्ट्य पुर' तस्य स्थितः और शत्रु के लिये कोई प्रतीकार नहीं ॥ ३६२ -- ३६५ ॥ जिस समय राजा मधु स्वयंभू से युद्ध करने के लिये गया था उस समय उसे बहुतसे अपशकुन हुए थे उन अपशकुनोंसे उसे रुक जाना था परन्तु वह बिलकुल नहीं रुका किन्तु सर्पके समान उसका और भी रोष बढ़ता ही चला गया एवं जिस प्रकार सूर्य आकाशमें चलता है उसी प्रकार राजा मधु भी वैरी स्वयंभ की ओर पृथ्वीको छोड़कर आकाश मार्ग से चल दिया || ३६६ ॥ उस समय जिनके गण्डस्थलों से मद चूता था ऐसे हाथियों के समूह के समूह चीत्कार करते थे और सिंदूर के श्राभरणों से शोभायमान थे सो ऐसे जान पड़ते थे मानों विजली युक्त मेघ ही गरज रहे हैं ॥ ३६७॥ घोड़ोंका समूह चलने लगा जो कि पढ़ पद पर हींसता जाता था । चित्र विचित्र अङ्गका धारक था। अपनी टापोंसे पर्वतोंको चूरनेवाला था और अपने खुरोंके न्याससे समुद्र सरीखे गढ़े करनेवाला था । बहुतसे पैदल योधा चलने लगे जो कि अनेक प्रकार के आयुधों के धारक थे। अत्यन्त पराक्रमी थे। विक्रमक्रमा-पक्षियोंके गमन के समान शीघ्र गमन करनेवाले थे । चलते समय वे नीची ऊंची जमीनका कुछ भी विचार नहीं करते थे इस लिये वे साक्षात् यमराजके घोड़ोंके सरीखे जान पड़ते थे। जिसकी कीर्तिका गान बड़े २ किन्नर करते थे एवं जो प्रलय कालके समुद्र के समान अत्यन्त भयङ्कर था ऐसा वह राजा मधु, राक्षस मधु के समान सेनाके मध्यभागमें स्थित हो गया तथा सांकलोंसे जिसकी भुजायें शोभायमान हैं एवं
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