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स्वरूपाचव
यित्वा स दुन्दुभि मृत्युभीमद ।। ३८६ ॥ तरामात्याः सत्याशु रेणराजानमंजता। कराटोरसमुदादुप्रक्षुब्धांभोधिभोषणं ॥३८ । संजाघटीति नो झिन दुर्जय जयकांक्षिणं । उपक्रमो धराधीश ! निर्वाच्यतास्पद यशः ३८८|| अणाराशिगभीरा ये नीतिविक्रमभूपि ता: । विमृश्यकारिणः क्षुद्रान् वा फर्णति न दुर्जयान् ।। ३८६ || स्टमाने पि गोमायौ प्रभत्ते वेगवत्यहो । न प्रहार समाधत्ते पञ्चा, |सुन पहिले तो राजा मधुका शरीर कम्पायमान हो निकला पोछे हृदयको दृढ़कर वह मन ही मन
यह कहने लगा कि वह स्वयं दुष्ट है मैं उसे अवश्य मारूंगा इसलिये शीघ हो उसके मारनेके | लिये सिंहासनसे उठ बैठा। राजा स्वयंभूको दुःखित बनाने के लिये उसने विशाल सेना तयार करा | ली एवं नगरमें भेरी दिवाकर राजा स्वयंभू के ऊपर चढ़ाई कर दी ॥३८३-२८६॥ राजा मधुकी यह चेष्टा देख अनेक मंत्रो उसके सामने आये और कपाटके समान विशाल वक्षस्थलके धारक | विशाल भुजा ओंसे शोभायमान एवं खलवलाते हुए समुद्र समान भयङ्कर राजा मधुसे विनय पूर्वक यह कहने लगे__ महाराज ! जो महानुभाव दुजय मनुष्यों के जयको आकांक्षा रखनेवाले हैं उनका कोई भी लजल्दी किया हुआ काय अच्छा नहीं होता क्योंकि जल्दी किये हुए कायसे संसारमें निन्दा ही होतो |
है। प्रभो ! जो महानुभाव समुद्र के समान गंभीर हैं । नीति और पराक्रमसे शोभायमान है एवं
हरएक कार्यको विचार पर्वक करनेवाले हैं वे क्षुद्र पुरुषों पर इसप्रकार कमर नहीं कसते और दुर्जदामोंको क्षमा भी नहीं करते ॥३८७-३८६ ॥ खामिन् । शृगाल चाहे कितना भी मदोन्मत्त चंचल ज
और वड़बड़ करनेवाला हो परन्तु जो केहरी मदोन्मत्त हाथियोंका घमण्ड चूरनेवाला है वह दीन
शृगाल पर प्रहार नहीं करता। जिस प्रकार शरद ऋतुमें होनेवाली फल प्राप्ति शरद ऋतुके शुभ ke कालकी आकांक्षा रखनेवालोंके ही होती है यदि वीचमें ही जल्दी कर दी जाय तो वह फल प्राप्ति
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