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दितु ॥ ३७५ ॥ प्रायशः स्त्रागतं सार्थं संविधाय प्रमोदनः । विप्रे स्थापयामास सतां होति कुलक्रमः ॥ ३७३ ॥ अन्वयुक्त मुनि स्वस्थ राज्ये च क्षमतां तनौ । मुहुर्मुहुः क्षणं स्थित्वा व्याजहारेति कौतुकात् ॥ ३०७ ॥ मी मधो ! यः कृतस्तेन तव दुःखसमु करः । स्वयंभुवातिदुष्टेन प्रसाद भृगु । ३७८ ।। वार्यमाणोऽपि धर्मेण भ्रात्रा दूतद्वयं तव । इत्वा द्रव्यं जघानाशु स्वयं भू भीषणोऽवित् ॥ ३७६ ॥ लोलावानिद्रव द्विद्वान् गुरुप्रन्मेरभोऽचलः । प्रतापाक्रांतभूकः सन् तृणवत्यां न मन्यते ॥ ३८० ॥ न मन्यते
दीख पड़े जो कि विशाल शरीरके धारक थं । देवताओंके ऋषि थे श्याम सुन्दर थे और सुवर्णमयी जटाओं से शोभायमान थे नारद मुनिको देखकर राजा मधु शीघ्रही सिंहासनसे उठ खडा हुआ । भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। बड़े आनन्दसे उनका स्वागत किया और भक्तिपूर्वक सिंहासन पर विठाया ठीक ही है जो सज्जन पुरुष हैं उनके कुलक्रमकी यही रीति है ॥ ३७३ – ३७६ ॥ उचित शुश्रूषा जब समाप्त हो गई उस समय ऋषि नारदने राजा मधुके राज्यकी और शरीरकी कुशल पूछी। कुछ देर तक शांत होकर वे बैठे रहे पीछे कौतूहलसे इस प्रकार कहने लगेप्रिय मधु ! अति दुष्ट स्वयंभूने सुनते ही दुःख उत्पन्न करनेवाला जो तुम्हारे साथ घमण्ड - पूर्वक कौतिक किया है उसे में सुनाता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो। तुम्हारे लिये भेंट लेकर दो दूत आ रहे थे । दैवयोगसे स्वयंभ से उनकी भेंट हो गई। उन्हें तुम्हारे दूत जान स्वयंभ के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा । वलभद्र धर्मने उसे बहुत रोका परन्तु उसने एक न सुनी तुम्हारे दोनों दूतोंको मार डाला एवं सर्पके समान महा भयङ्कर स्वयंभू ने उनका सारा धन छीन लिया । वह राजा स्वयंभ इन्द्र के समान क्रीडा प्रेमी है । बृहस्पतिके समान विद्वान है । मेरु पर्वत के समान चल है । समस्त पृथिवोको अपने प्रतापसे उसने वश कर रक्खा है तुम्हें तो वह तृणकी वरावर भी नहीं मानता ॥ ३७७ – ३८० ॥ क्रियाहीन भी नही मानता है अक्रियाहीन भी नहीं मानता है । अप्रा
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